Urdu Ghazal Of Mirza Ghalib By Radif Ree to Ain





बला से हैं जो यह पीश नज़र डर व दयवार
नगाह शौक़ को हैं बाल व पर डर व दयवार
वफ़ोर अशक़ ने काशानह का कया यह रनग
कि हो ग मरे दयवार व डर डर व दयवार
नहीं है सएह कि सुन कर नवीद मौक़दम यार
ग हैं चनद क़दम पीशतर डर व दयवार
हवी है किस क़दर अरज़ान म जलोह
कि मसत है तरे कोचे में हर डर व दयवार
जो है तझे सर सोदा अनतज़ार तो आ
कि हैं दकान मताा नज़र डर व दयवार
हजोम गरीह का सामान कब कया में ने
कि गर पड़ी न मरे पां पर डर व दयवार
वह आ रहा मरे हम सएह मीं तो सा से
हो फ़दा डर व दयवार पर डर व दयवार
नज़र में खटके है बन तीरे घर की आबादी
हमीशह रोते हैं हम दीख कर डर व दयवार
न पोछ बे ख़ोद अीश मौक़दम सीलाब
कि नाचते हैं पड़ी सर बसर डर व दयवार
न कहह किसी से कि ग़ालब नहीं ज़माने मीं
हरीफ़ राज़ महबत मगर डर व दयवार



घर जब बन लिया तरे डर पर कहे बग़ीर
जाने गा अब भी तो न मरा घर कहे बग़ीर
कहते हैं जब रही न मझे ताक़त सख़न
जानों किसी के दिल की में कयोनकर कहे बग़ीर
काम इस से आ पड़ा है कि जस का जहान मीं
लयवे न कोई नाम सितम गर कहे बग़ीर
जी में ही कुछ नहीं है हमारे वगरनह हम
सर जा या रहे न रहीं पर कहे बग़ीर
छोड़ों गा में न इस बत काफ़िर का पोजना
छोड़े न ख़लक़ गो मझे काफ़ौर कहे बग़ीर
मक़्सद है नाज़ व ग़मज़ह वले गफ़तगो में काम
चलता नहीं है दुशनह व ख़नजर कहे बग़ीर
हर चनद हो मशाहद हक़ की गफ़तगो
बनती नहीं है बादह व साग़र कहे बग़ीर
बहरा हों मीं। तो चाही दोना हों अलतफ़ात
सनता नहीं हों बात मकरर कहे बग़ीर
ग़ालब न कर हजोर में तो बार बार अरज
ज़ाहर है तीरा हाल सब उन पर कहे बग़ीर



कयों जाल गया नह ताब रख़ यार दीख कर
जलता हों अपनी ताक़त दीदार दीख कर
आतश परसत कहते हैं अहलौ जहां मझे
सरगरम नालह हा शररबार दीख कर
कया आबरो अशक़ जहां आम हो जफ़ा
रकता हों तुम को बे सबब आज़ार दीख कर
आता है मीरे क़त्ल को पौर जोश रशक से
मरता हों इस के हाथ में तलवार दीख कर
साबत हवा है गरदन मीना पह ख़ोन ख़लक़
लरज़े है मोज मे तरी रफ़्तार दीख कर
वा हसरता कि यार ने खीनचा सितम से हाथ
हम को हरीस लज़त आज़ार दीख कर
बक जाते हैं हम आप मताा सख़न के साथ
लीकन अयार तबा ख़रीदार दीख कर
ज़ुनार बानध सबह सद दानह तोड़ डाल
रहरो चले है राह को हमवार दीख कर
उन आबलों से पां के घबरा गया था मीं
जी ख़ोश हवा है राह को पुर ख़ार दीख कर
कया बुद गमां है मझ से कि आीने में मरे
तोती का अकस समझे है ज़नगार दीख कर
गरनी थी हम पह बरक़ तजली न तो र पर
दीते हैं बादह ज़रफ़ क़दह ख़वार दीख कर
सर फोड़ना वह ग़ालब शोरीदह हाल का
याद आगया मझे तरी दयवार दीख कर



लरज़ता है मरा दिल ज़हमत महर दरख़शां पर
में हों वह क़तर शबनम कि हो ख़ार बयाबां पर
न छोड़ी हजरत योसफ़ ने यां भी ख़ानह आराई
सफ़ीदी दीद याक़ोब की फरती है ज़नदां पर
फ़ना तालीम दरस बे ख़ोदी हों उस ज़माने से
कि मजनों लाम अलफ़ लखता था दयवार दबसतां पर
फ़राग़त किस क़दर रहती मझे तशवीश मरहम से
बहम गर साल करते पारह हा दिल नमक दां पर
नहीं अक़लीम अलफ़त में कोई तोमार नाज़ एसा
कि पशत चशम से जस की न होवे मुहर अनवां पर
मझे अब दीख कर अबर शफ़क़ आलोदह याद आया
कि फ़रक़त में तरी आतश बरसती थी गलसतां पर
बजुज़ परवाज़ शोक़ नाज़ कया बाक़ी रहा होगा
क़यामत अक हवा तनद है ख़ाक शहीदां पर
न लड़ नासह से ग़ालब कया हवा गर इस ने शदत की
हमारा भी तो आख़र ज़ोर चलता है गरीबां पर




है बस कि हर खाक उन के अशारे में नशां ओर
करते हैं मौहबत तो गज़रता है गमां ओर
यारब वह न समझे हैं न समझीं गे मरी बात
दे और दिल उन को जो न दे मझ को ज़बां ओर
अबरो से है कया इस नगह नाज़ को पयोनद
है तीर मक़रर मगर इस की है कमां ओर
तुम शहर में हो तो हमें कया ग़म जब अठीं गे
ले आीं गे बाज़ार से जा कर दिल व जां ओर
हर चनद सुबुक दोस्त हो बत शकनी मीं
हम हीं तो अभी राह में हैं सनग गरां ओर
है ख़ों जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते जो की दीद ख़ो नबानह फ़शां ओर
मरता हों इस आवाज़ पह हर चनद सर अड़ जा
जलाद को लीकन वह कहे जाईं कि हां ओर
लोगों को है ख़ोरशीद जहां ताब का धोका
हर रोज दखाता हों में खाक दाग़ नहां ओर
लीता। न अगर दिल तमीं दीता कोई दम चीन
करता।जो न मरता कोई दिन आह व फ़ग़ां ओर
पाते नहीं जब राह तो चड़ जाते हैं नाले
रुकती है मरी तबा। तो होती है रवां ओर
हैं और भी दनया में सख़नोर बहत अछे
कहते हैं कि ग़ालब का है अनदाज़ बयां ओर



सफ़ा हीरत आीनह है सामान ज़नग आख़र
तग़ीर " आब बरजा मानदह का पाता है रनग आख़र
न की सामान अीश व जाह ने तदबीर वहशत की
हवा जाम ज़ुमरद भी मझे दाग पलनग आख़र



जनों की दोस्त गीरी किस से हो गर हो न अरयानी
गरीबां चाक का हक़ हो गया है मीरी गर्दन पर
बह रनग काग़ज़ आतश ज़दह नीरनग बे ताबी
हज़ार आीनह दिल बानधे है बाल यक तपीदन पर
फ़लक से हम को अीश रफ़तह का कया कया तक़ाजा हे
मताा बुरदह को समझे हो हैं क़र्ज़ रहज़न पर
हम और वह बे सबब रनज आशना दशमन कि रखता हे
शााा महर से तुहमत नगह की चशम रोज़न पर
फ़ना को सोनप गर मशताक़ है अपनी हक़ीक़त का
फ़रोग़ ताला ख़ाशाक है मोक़ोफ़ गलख़न पर
असद बसमल है किस अनदाज़ का क़ातिल से कहता हे
तो मशक़ नाज़ कर ख़ोन दो अालम मीरी गर्दन पर



सितम कश मसलहत से हों कि ख़ोबां तझ पह अाशक़ हीं
तकलफ़ बर तरफ़ मल जाे गा तज सा रक़ीब आख़र



लाज़म था कि दीखो मरा रसतह कोई दन ओर
तनहा गे कयों अब रहो तनहा कोई दिन ओर
मट जाेगा सौर गर तरा पत्थर न घसे गा
हों डर पह तरे नासीह फ़रसा कोई दिन ओर
आे हो कुल और आज ही कहते हो कि जां
माना कि मीशह नहीं अच्चा कोई दिन ओर
जाते हवे कहते हो क़यामत को मलीं गे
कया ख़ोब क़यामत का है गोया कोई दिन ओर
हां अे फ़लक पीर जवां था अभी अारफ़
कया तीरा बगड़ ता जो न मरता कोई दिन ओर
तुम माह शब चार दहम थे मरे घर के
फर कयों न रहा घर का वह नक़शा कोई दिन ओर
तुम कौन से एसे थे खरे दाद व सतद के
करता मलकु अलमोत तक़ाजा कोई दिन ओर
मझ से तमहीं नफरत सही नीर से लड़ाई
बच्चों का भी दीखा न तमाशा कोई दिन ओर
गज़री न बहरहाल यह मदत ख़ोश व नाख़ोश
करना था जवां मरग गज़ारा कोई दिन ओर
नादां हो जो कहते हो कि कयों जीते हैं ग़ालब
क़िस्मत में है मरने की तमना कोई दिन ओर


ज़



हरीफ़ मतलब मुश्किल नहीं फ़सोन नयाज़
दाा क़ुबूल हो या रब कि अमर ख़जर दराज़
न हो बह हरज़ह बयाबां नोरद वहम वजोद
हनोज़ तीरे तसोर में हेनशीब व फ़राज़
वसाल जलोह तमाशा है पर दमाग़ कहां
कि दीजे आीन इन्तज़ार को परवाज़
हर एक ज़र अाशक़ है आफ़ताब परसत
गी न ख़ाक हो पर हवा जलो नाज़
न पोछ वसात मे ख़ान जनों ग़ालब
जहां यह कास गरदों है एक ख़ाक अनदाज़



फ़ारग़ मझे न जान कि माननद सुबह व महर
है दाग़ अशक़ ज़ीनत जीब कफ़न हनोज़
है नाज़ मफ़लसां ज़र अ ज़ दोस्त रफ़तह पर
हों गल फ़रोश शोख़ दाग़ कहन हनोज़
मे ख़ान जिगर में यहां ख़ाक भी नहीं
ख़मयाज़ह खीनचे है बत बीदाद फ़न हनोज़



कयों कर इस बत से रखों जान अज़ीज़
कया नहीं है मझे एमान अज़ीज़
दिल से नकला। पह न नकला दिल से
है तरे तीर का पीकान अज़ीज़
ताब लाते ही बने गी ग़ालब
वाक़ाई सख्त है और जान अज़ीज़



वसात साई करम दीख कि सर ता सर ख़ाक
गज़रे है आबलह पा अबर गहरबार हनोज़
यक क़लम काग़ज़ आतश ज़दह है सफ़ह दशत
नक़श पा में है तप गरम रफ़्तार हनोज़



ग़ुल खले ग़नचे चटकने लगे और सुबह हवी
सरख़ोश ख़वाब है वह नरगस मख़मोर हनोज़



न ग़ुल नग़मह हों न परद साज़
में हों अपनी शकसत की आवाज़
तो और आराश ख़म काकल
में और अनदीशह हा दूर दराज़
लाफ़ तमकीं फ़रीब सादह दली
हम हीं और राज़ हा सीनह गदाज़
हों गरफ़तार अलफ़त सयाद
वरनह बाक़ी है ताक़त परवाज़
वह भी दिन हो कि इस सितम गर से
नाज़ खीनचों बजा हसरत नाज़
नहीं दिल में मरे वह क़तर ख़ोन
जस से मज़गां हवी न हो गलबाज़
अे तरा ग़मज़ह यक क़लम अनगीज़
अे तरा ज़लम सर बसर अनदाज़
तो हवा जलोह गर मबारक हो
रीज़श सजद जबीन नयाज़
मझ को पोछा तो कुछ ग़जब न हवा
में ग़रीब और तो ग़रीब नवाज़
असद अललह ख़ां तमाम हवा
अे दरीग़ा वह रनद शाहद बाज़





मुख़दह ، अे ज़ौोक़ असीरी ! कि नज़र आता है
दाम ख़ाली ، क़फ़ौस मुरग़ गरफ़तार के पास
जगर तशन आज़ार ، तसली न हवा
जुवे ख़ुों हम ने बहाई बुन हर ख़ार के पास
मुनद गीं खोलते ही खोलते आनखीं हौे हौे
ख़ुोब वक़्त आे तुम अस अाशक़ बीमार के पास
मौीं भी रुक रुक के न मरता ، जो ज़बां के बदले
दशनह अक तीज़ सा होता मरे ग़मख़वार के पास
दौहौन शीर में जा बीठये ، लीकन अे दिल
न खड़े होजये ख़ुोबान दिल आज़ार के पास
दीख कर तझ को ، चमन बसकह नुमो करता है
ख़ुोद बख़ोद पहनचे है गुल गोश दसतार के पास
मर गया फोड़ के सर ग़ालब वहशी ، हौे हौे !
बीठना उस का वह ، आ कर ، तरी दयवार के पास



अे असद हम ख़ोद असीर रनग व बो बाघ हीं
ज़ाहरा सयाद नादां है गरफ़तार होस





न लयवे गर ख़स जौोहर तरओत सबज़ खत से
लगादे ख़ान आीनह में रुवे नगार आतश
फ़रोग़ हुसन से होती है हल मुशकल अाशक़
न नकले शमा के पासे ، नकाले गरनह ख़ार आतश





जाद रह ख़ुोर को वक़त शाम है तार शााा
चरख़ वा करता है माह नौ से आग़ोश वदाा



रुख़ नगार से है सोज़ जओदानी शमा
हवी है आतश गुल आब ज़नदगानी शमा
ज़बान अहल ज़बां में है मरग ख़ामोशी
यह बात बज़म में रोशन हवी ज़बानी शमा
करे है सरफ़ बह एमाे शालह क़सह तमाम
बह तरज़ अहल फ़ना है फ़सानह ख़वानी शमा
घाम उस को हसरत परवानह का है अे शालह
तरे लरज़ने से ज़ाहर है नातवानी शमा
तरे ख़याल से रुोह अहतज़ाज़ करती है
बह जलोह रीज़ बाद व बह परफ़शानी शमा
नशात दाग़ ग़म अशक़ की बहार न पुोछ
शगफ़तगी है शहीद गुल ख़ज़ानी शमा
जले है ، दीख के बालीन यार पर मझ को
न कयों हो दिल पह मरे दाग़ बदगमानी शमा

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* नसख़ महर मीं शालह ، नसख़ह असी में शाले। शालह ज़यादह सहीह हे

ر

73۔

بلا سے ہیں جو یہ پیشِ نظر در و دیوار
نگاہِ شوق کو ہیں بال و پر در و دیوار
وفورِ عشق نے کاشانہ کا کیا یہ رنگ
کہ ہو گۓ مرے دیوار و در در و دیوار
نہیں ہے سایہ، کہ سن کر نوید مَقدمِ یار
گۓ ہیں چند قدم پیشتر در و دیوار
ہوئی ہے کس قدر ارزانئ مۓ جلوہ
کہ مست ہے ترے کوچے میں ہر در و دیوار
جو ہے تجھے سرِ سوداۓ انتظار، تو آ
کہ ہیں دکانِ متاعِ نظر در و دیوار
ہجومِ گریہ کا سامان کب کیا میں نے
کہ گر پڑے نہ مرے پاؤں پر در و دیوار
وہ آ رہا مرے ہم سایہ میں، تو ساۓ سے
ہوۓ فدا در و دیوار پر در و دیوار
نظر میں کھٹکے ہے بِن تیرے گھر کی آبادی
ہمیشہ روتے ہیں ہم دیکھ کر در و دیوار
نہ پوچھ بے خودئِ عیشِ مَقدمِ سیلاب
کہ ناچتے ہیں پڑے سر بسر در و دیوار
نہ کہہ کسی سے کہ غالبؔ نہیں زمانے میں
حریف رازِ محبت مگر در و دیوار

74۔

گھر جب بنا لیا ترے در پر کہے بغیر
جانے گا اب بھی تو نہ مرا گھر کہے بغیر؟
کہتے ہیں جب رہی نہ مجھے طاقتِ سخن
’جانوں کسی کے دل کی میں کیونکر کہے بغیر‘
کام اس سے آ پڑا ہے کہ جس کا جہان میں
لیوے نہ کوئی نام ستم گر کہے بغیر
جی میں ہی کچھ نہیں ہے ہمارے وگرنہ ہم
سر جاۓ یا رہے، نہ رہیں پر کہے بغیر
چھوڑوں گا میں نہ اس بتِ کافر کا پوجنا
چھوڑے نہ خلق گو مجھے کافَر کہے بغیر
مقصد ہے ناز و غمزہ ولے گفتگو میں کام
چلتا نہیں ہے دُشنہ و خنجر کہے بغیر
ہر چند ہو مشاہدۂ حق کی گفتگو
بنتی نہیں ہے بادہ و ساغر کہے بغیر
بہرا ہوں میں۔ تو چاہیۓ، دونا ہوں التفات
سنتا نہیں ہوں بات مکرّر کہے بغیر
غالبؔ نہ کر حضور میں تو بار بار عرض
ظاہر ہے تیرا حال سب اُن پر کہے بغیر

75۔

کیوں جل گیا نہ، تابِ رخِ یار دیکھ کر
جلتا ہوں اپنی طاقتِ دیدار دیکھ کر
آتش پرست کہتے ہیں اہلَ جہاں مجھے
سرگرمِ نالہ ہاۓ شرربار دیکھ کر
کیا آبروۓ عشق، جہاں عام ہو جفا
رکتا ہوں تم کو بے سبب آزار دیکھ کر
آتا ہے میرے قتل کو پَر جوشِ رشک سے
مرتا ہوں اس کے ہاتھ میں تلوار دیکھ کر
ثابت ہوا ہے گردنِ مینا پہ خونِ خلق
لرزے ہے موجِ مے تری رفتار دیکھ کر
وا حسرتا کہ یار نے کھینچا ستم سے ہاتھ
ہم کو حریصِ لذّتِ آزار دیکھ کر
بِک جاتے ہیں ہم آپ، متاعِ سخن کے ساتھ
لیکن عیارِ طبعِ خریدار دیکھ کر
زُنّار باندھ، سبحۂ صد دانہ توڑ ڈال
رہرو چلے ہے راہ کو ہموار دیکھ کر
ان آبلوں سے پاؤں کے گھبرا گیا تھا میں
جی خوش ہوا ہے راہ کو پُر خار دیکھ کر
کیا بد گماں ہے مجھ سے، کہ آئینے میں مرے
طوطی کا عکس سمجھے ہے زنگار دیکھ کر
گرنی تھی ہم پہ برقِ تجلّی، نہ طو ر پر
دیتے ہیں بادہ' ظرفِ قدح خوار' دیکھ کر
سر پھوڑنا وہ! 'غالبؔ شوریدہ حال' کا
یاد آگیا مجھے تری دیوار دیکھ کر

76۔

لرزتا ہے مرا دل زحمتِ مہرِ درخشاں پر
میں ہوں وہ قطرۂ شبنم کہ ہو خارِ بیاباں پر
نہ چھوڑی حضرتِ یوسف نے یاں بھی خانہ آرائی
سفیدی دیدۂ یعقوب کی پھرتی ہے زنداں پر
فنا "تعلیمِ درسِ بے خودی" ہوں اُس زمانے سے
کہ مجنوں لام الف لکھتا تھا دیوارِ دبستاں پر
فراغت کس قدر رہتی مجھے تشویش مرہم سے
بہم گر صلح کرتے پارہ ہاۓ دل نمک داں پر
نہیں اقلیم الفت میں کوئی طومارِ ناز ایسا
کہ پشتِ چشم سے جس کی نہ ہووے مُہر عنواں پر
مجھے اب دیکھ کر ابرِ شفق آلودہ یاد آیا
کہ فرقت میں تری آتش برستی تھی گلِستاں پر
بجُز پروازِ شوقِ ناز کیا باقی رہا ہوگا
قیامت اِک ہواۓ تند ہے خاکِ شہیداں پر
نہ لڑ ناصح سے، غالبؔ، کیا ہوا گر اس نے شدّت کی
ہمارا بھی تو آخر زور چلتا ہے گریباں پر


77۔

ہے بس کہ ہر اک ان کے اشارے میں نشاں اور
کرتے ہیں مَحبّت تو گزرتا ہے گماں اور
یارب وہ نہ سمجھے ہیں نہ سمجھیں گے مری بات
دے اور دل ان کو، جو نہ دے مجھ کو زباں اور
ابرو سے ہے کیا اس نگہِ ناز کو پیوند
ہے تیر مقرّر مگر اس کی ہے کماں اور
تم شہر میں ہو تو ہمیں کیا غم، جب اٹھیں گے
لے آئیں گے بازار سے جا کر دل و جاں اور
ہر چند سُبُک دست ہوۓ بت شکنی میں
ہم ہیں، تو ابھی راہ میں ہیں سنگِ گراں اور
ہے خوںِ جگر جوش میں دل کھول کے روتا
ہوتے جو کئی دیدۂ خو نبانہ فشاں اور
مرتا ہوں اس آواز پہ ہر چند سر اڑ جاۓ
جلاّد کو لیکن وہ کہے جائیں کہ ’ہاں اور‘
لوگوں کو ہے خورشیدِ جہاں تاب کا دھوکا
ہر روز دکھاتا ہوں میں اک داغِ نہاں اور
لیتا۔ نہ اگر دل تمھیں دیتا، کوئی دم چین
کرتا۔جو نہ مرتا، کوئی دن آہ و فغاں اور
پاتے نہیں جب راہ تو چڑھ جاتے ہیں نالے
رُکتی ہے مری طبع۔ تو ہوتی ہے رواں اور
ہیں اور بھی دنیا میں سخنور بہت اچھّے
کہتے ہیں کہ غالبؔ کا ہے اندازِ بیاں اور

78۔

صفاۓ حیرت آئینہ ہے سامانِ زنگ آخر
تغیر " آبِ برجا ماندہ" کا پاتا ہے رنگ آخر
نہ کی سامانِ عیش و جاہ نے تدبیر وحشت کی
ہوا جامِ زُمرّد بھی مجھے داغ پِلنگ آخر

79۔

جنوں کی دست گیری کس سے ہو گر ہو نہ عریانی
گریباں چاک کا حق ہو گیا ہے میری گردن پر
بہ رنگِ کاغذِ آتش زدہ نیرنگِ بے تابی
ہزار آئینہ دل باندھے ہے بالِ یک تپیدن پر
فلک سے ہم کو عیشِ رفتہ کا کیا کیا تقاضا ہے
متاعِ بُردہ کو سمجھے ہوۓ ہیں قرض رہزن پر
ہم اور وہ بے سبب "رنج آشنا دشمن" کہ رکھتا ہے
شعاعِ مہر سے تُہمت نگہ کی چشمِ روزن پر
فنا کو سونپ گر مشتاق ہے اپنی حقیقت کا
فروغِ طالعِ خاشاک ہے موقوف گلخن پر
اسدؔ بسمل ہے کس انداز کا، قاتل سے کہتا ہے
’تو مشقِ ناز کر، خونِ دو عالم میری گردن پر‘

80۔

ستم کش مصلحت سے ہوں کہ خوباں تجھ پہ عاشق ہیں
تکلـّف بـر طـرف! مـل جائـے گا تـجـھ سـا رقیـب آخــر

81۔

لازم تھا کہ دیکھو مرا رستہ کوئی دِن اور
تنہا گئے کیوں؟ اب رہو تنہا کوئی دن اور
مٹ جائےگا سَر ،گر، ترا پتھر نہ گھِسے گا
ہوں در پہ ترے ناصیہ فرسا کوئی دن اور
آئے ہو کل اور آج ہی کہتے ہو کہ ’جاؤں؟‘
مانا کہ ھمیشہ نہیں اچھا کوئی دن اور
جاتے ہوئے کہتے ہو ’قیامت کو ملیں گے‘
کیا خوب! قیامت کا ہے گویا کوئی دن اور
ہاں اے فلکِ پیر! جواں تھا ابھی عارف
کیا تیرا بگڑ تا جو نہ مرتا کوئی دن اور
تم ماہِ شبِ چار دہم تھے مرے گھر کے
پھر کیوں نہ رہا گھر کا وہ نقشا کوئی دن اور
تم کون سے ایسے تھے کھرے داد و ستد کے
کرتا ملکُ الموت تقاضا کوئی دن اور
مجھ سے تمہیں نفرت سہی، نیر سے لڑائی
بچوں کا بھی دیکھا نہ تماشا کوئی دن اور
گزری نہ بہرحال یہ مدت خوش و ناخوش
کرنا تھا جواں مرگ گزارا کوئی دن اور
ناداں ہو جو کہتے ہو کہ ’کیوں جیتے ہیں غالبؔ‘
قسمت میں ہے مرنے کی تمنا کوئی دن اور


ز

82۔

حریفِ مطلبِ مشکل نہیں فسونِ نیاز
دعا قبول ہو یا رب کہ عمرِ خضر دراز
نہ ہو بہ ہرزہ، بیاباں نوردِ وہمِ وجود
ہنوز تیرے تصوّر میں ہےنشیب و فراز
وصالِ جلوہ تماشا ہے پر دماغ کہاں!
کہ دیجئے آئینۂ انتظار کو پرواز
ہر ایک ذرّۂ عاشق ہے آفتاب پرست
گئی نہ خاک ہوۓ پر ہواۓ جلوۂ ناز
نہ پوچھ وسعتِ مے خانۂ جنوں غالبؔ
جہاں یہ کاسۂ گردوں ہے ایک خاک انداز

83۔

فارغ مجھے نہ جان کہ مانندِ صبح و مہر
ہے داغِ عشق، زینتِ جیبِ کفن ہنوز
ہے نازِ مفلساں "زرِ ا ز دست رفتہ" پر
ہوں "گل فروِشِ شوخئ داغِ کہن" ہنوز
مے خانۂ جگر میں یہاں خاک بھی نہیں
خمیازہ کھینچے ہے بتِ بیدادِ فن ہنوز

84۔

کیوں کر اس بت سے رکھوں جان عزیز!
کیا نہیں ہے مجھے ایمان عزیز!
دل سے نکلا۔ پہ نہ نکلا دل سے
ہے ترے تیر کا پیکان عزیز
تاب لاتے ہی بنے گی غالبؔ
واقعی سخت ہے اور جان عزیز

85۔

وسعتِ سعیِ کرم دیکھ کہ سر تا سرِ خاک
گزرے ہے آبلہ پا ابرِ گہربار ہنوز
یک قلم کاغذِ آتش زدہ ہے صفحۂ دشت
نقشِ پا میں ہے تپِ گرمئ رفتار ہنوز

86۔

گل کھلے غنچے چٹکنے لگے اور صبح ہوئی
سرخوشِ خواب ہے وہ نرگسِ مخمور ہنوز

87۔

نہ گل نغمہ ہوں نہ پردۂ ساز
میں ہوں اپنی شکست کی آواز
تو اور آرائشِ خمِ کاکل
میں اور اندیشہ ہاۓ دور دراز
لاف تمکیں، فریبِ سادہ دلی
ہم ہیں، اور راز ہاۓ سینہ گداز
ہوں گرفتارِ الفتِ صیّاد
ورنہ باقی ہے طاقتِ پرواز
وہ بھی دن ہو، کہ اس ستم گر سے
ناز کھینچوں، بجاۓ حسرتِ ناز
نہیں دل میں مرے وہ قطرۂ خون
جس سے مذگاں ہوئی نہ ہو گلباز
اے ترا غمزہ یک قلم انگیز
اے ترا ظلم سر بسر انداز
تو ہوا جلوہ گر، مبارک ہو!
ریزشِ سجدۂ جبینِ نیاز
مجھ کو پوچھا تو کچھ غضب نہ ہوا
میں غریب اور تو غریب نواز
اسدؔ اللہ خاں تمام ہوا
اے دریغا وہ رندِ شاہد باز

س

88۔

مُژدہ ، اے ذَوقِ اسیری ! کہ نظر آتا ہے
دامِ خالی ، قفَسِ مُرغِ گِرفتار کے پاس
جگرِ تشنۂ آزار ، تسلی نہ ہوا
جُوئے خُوں ہم نے بہائی بُنِ ہر خار کے پاس
مُند گئیں کھولتے ہی کھولتے آنکھیں ہَے ہَے!
خُوب وقت آئے تم اِس عاشقِ بیمار کے پاس
مَیں بھی رُک رُک کے نہ مرتا ، جو زباں کے بدلے
دشنہ اِک تیز سا ہوتا مِرے غمخوار کے پاس
دَہَنِ شیر میں جا بیٹھیے ، لیکن اے دل
نہ کھڑے ہوجیے خُوبانِ دل آزار کے پاس
دیکھ کر تجھ کو ، چمن بسکہ نُمو کرتا ہے
خُود بخود پہنچے ہے گُل گوشۂ دستار کے پاس
مر گیا پھوڑ کے سر غالبؔ وحشی ، ہَے ہَے !
بیٹھنا اُس کا وہ ، آ کر ، تری دِیوار کے پاس

89۔

اے اسدؔ ہم خود اسیرِ رنگ و بوۓ باغ ہیں
ظاہرا صیّادِ ناداں ہے گرفتارِ ہوس

ش

90۔

نہ لیوے گر خسِ جَوہر طراوت سبزۂ خط سے
لگادے خانۂ آئینہ میں رُوئے نگار آتِش
فروغِ حُسن سے ہوتی ہے حلِّ مُشکلِ عاشق
نہ نکلے شمع کے پاسے ، نکالے گرنہ خار آتش

ع

91۔

جادۂ رہ خُور کو وقتِ شام ہے تارِ شعاع
چرخ وا کرتا ہے ماہِ نو سے آغوشِ وداع

92۔

رُخِ نگار سے ہے سوزِ جاودانیِ شمع
ہوئی ہے آتشِ گُل آبِ زندگانیِ شمع
زبانِ اہلِ زباں میں ہے مرگِ خاموشی
یہ بات بزم میں روشن ہوئی زبانیِ شمع
کرے ہے صِرف بہ ایمائے شعلہ قصہ تمام
بہ طرزِ اہلِ فنا ہے فسانہ خوانیِ شمع
غم اُس کو حسرتِ پروانہ کا ہے اے شعلہ*
ترے لرزنے سے ظاہر ہے ناتوانیِ شمع
ترے خیال سے رُوح اہتــزاز کرتی ہے
بہ جلوہ ریـزئ باد و بہ پرفشانیِ شمع
نشاطِ داغِ غمِ عشق کی بہار نہ پُوچھ
شگفتگی ہے شہیدِ گُلِ خزانیِ شمع
جلے ہے ، دیکھ کے بالینِ یار پر مجھ کو
نہ کیوں ہو دل پہ مرے داغِ بدگمانیِ شمع

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* نسخۂ مہر میں" شعلہ" ، نسخہ آسی میں شعلے۔ شعلہ زیادہ صحیح ہے

Mirza Ghalib 's Ghazal Tee to Dal







अफ़सोस कि दनदां का कया रज़क़ फ़लक ने
जिन लोगों की थी दरख़ोर अक़द गहर अनगशत
काफ़ी है नशानी तरी छले का न दीना
ख़ाली मझे दखला के बोक़त सफ़र अनगशत
लखता हों असद सोज़श दिल से सख़न गरम
ता रख न सके कोई मरे हरफ़ पर अनगशत

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नसख़ नज़ामी में अगरचह दीदां है लीकन माानी के लहाज़ से दनदां मनासब हे दीदां सहो कताबत ममकन हे।
दीदां दोदह का जमा है इस से मराद कीड़े हैं तब इस का मतलब बनता है कि अनगलयों को क़बर की कीड़ों का ख़ोराक बन दया। नसख़ महर और नसख़ह अलामह असी में लफ़्ज़ दीदां ही अया है हां अलबतह नसख़ह हमीदीह शएा करदह मजलस तरक़ी अदब लाहोर 1983 ) में लफ़्ज़ दनदान अया हे



रहा गर कोई ता क़यामत सलामत
फर खाक रोज मरना है हजरत सलामत
जिगर को मरे अशक़ ख़ों नाबह मशरब
लखे है ख़दओनद नामत सलामत
अली अललरग़म दशमन शहीद वफ़ा हों
मबारक मबारक सलामत सलामत
नहीं गर सर व बरग अदराक मानी
तमाशा नीरनग सूरत सलामत



आमद खत से हवा है सरद जो बाज़ार दोसत
दोद शमा कशतह था शएद ख़त रख़सार दोसत
अे दल नाााक़बत अनदीश जबत शौक़ कर
कौन ला सकता है ताब जलो दीदार दोसत
ख़ानह वीरां साज़ हीरत तमाशा कीजी
सोरत नक़श क़दम हों रफ़त रफ़तार दोसत
अशक़ में बीदाद रशक ग़ीर ने मारा मझे
कुशत दुश्मन हों आख़र गरचह था बीमार दोसत
चशम मा रोशन कि इस बे दर्द का दिल शाद हे
दीद पर ख़ों हमारा साग़र सरशार दोसत

क़

ग़ीर यों करता है मीरी परसश इस के हजर मीं
बे तकलफ़ दोस्त हो जीसे कोई घाम ख़वार दोसत
ताकह में जानों कि है इस की रसाई वां तलक
मझ को दीता है पयाम वाद दीदार दोसत
जब कि में करता हों अपना शको जाफ़ दमाग़
सौर करे है वह हदीस ज़लफ़ अनबर बार दोसत
चपके चपके मझ को रोते दीख पाता है अगर
हनस के करता है बयान शोख़ गफ़तार दोसत
महरबानी हा दुश्मन की शकएत कीजी
या बयां कीजे सपास लज़त आज़ार दोसत
यह गज़ल अपनी मझे जी से पसन्द अती हेाप
है रदीफ़ शार में ग़ालब ज़ बस तकरार दोसत



मनद गीं खोलते ही खोलते आनखीं ग़ालब
यार ला मरी बालीं पह असे पर किस वक़त





गलशन में बनद वबसत बह रनग दगर है आज
क़मरी का तोक़ हलक़ बीरोन डर है आज
आता है एक पार दिल हर फ़ग़ां के साथ
तार नफ़स कमनद शकार असर है आज
अे अाफ़ीत कनारह कर अे अनतज़ाम चल
सीलाब गरीह डर पे दयवार व डर है आज



माज़ोल तपश हवी अफ़राज़ अनतज़ार
चशम कशोदह हलक़ बीरोन डर है आज



लो हम मरीज अशक़ के बीमारदार हीं
अछा अगर न हो तो मसीहा का कया अलाज





नफ़ौस न अनजमन आरज़ो से बाहर खीनच
अगर शराब नहीं अनतज़ार साग़र खीनच
कमाल गरम सा तलाश दीद न पोछ
बह रनग ख़ार मरे आीनह से जोहर खीनच
तझे बहान राहत है इन्तज़ार अे दल
कया है किस ने अशारह कि नाज़ बसतरखीनच
तरी तरफ़ है बह हसरत नज़ार नरगस
बह कोर दिल व चशम रक़ीब साग़र खीनच
बह नीम ग़मज़ह अदा कर हक़ वदयात नाज़
नयाम परद ज़ख़म जिगर से ख़नजर खीनच
मरे क़दह में है सहबा आतश पनहां
बरो सफ़रह कबाब दल समन्दर खीनच





हसन ग़मज़े की कशाकश से छटा मीरे बाद
बारे आराम से हैं अहल जफ़ा मीरे बाद
मनसब शीफ़तगी के कोई क़ाबल न रहा
हवी माज़ोल अनदाज़ व अदा मीरे बाद
शमा बझती है तो इस में से धवां अठता हे
शाल अशक़ सीह पोश हवा मीरे बाद
ख़ों है दिल ख़ाक में अहवाल बतां पर यानी
उन के नाख़न हो महताज हना मीरे बाद
दरख़ोर अरज नहीं जोहर बीदाद को जा
नगह नाज़ है सरमे से ख़फ़ा मीरे बाद
है जनों अहल जनों के ल आग़ोश वदाा
चाक होता है गरीबां से जुदा मीरे बाद
कौन होता है हरीफ़ म मर्द अफ़गन अशक़
है मकरर लब साक़ी में सला मीरे बाद
घाम से मरता हों कि अतना नहीं दनया में कवी
कि करे ताज़ीत महर व वफ़ा मीरे बाद
आ है बे कस अशक़ पह रोना ग़ालब
किस के घर जा गा सीलाब बला मीरे बाद

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नसख़ हमीदीह में है लब साक़ी पह। अकसर नसख़ों में बाद में यही अमला हे।
* नसख़ महर असी और बाक़ी नसख़ों में लफ़्ज़ पह हे।



हलाक बे ख़बरी नग़म वजोद व अदम
जहान व अहल जहां से जहां जहां आबाद



तझ से मक़ाबले की कसे ताब है वले
मेरा लहो भी खूब है तीरी हना के बाद
ت

62۔

افسوس کہ دنداں* کا کیا رزق فلک نے
جن لوگوں کی تھی درخورِ عقدِ گہر انگشت
کافی ہے نشانی تری چھلّے کا نہ دینا
خالی مجھے دکھلا کے بوقتِ سفر انگشت
لکھتا ہوں اسدؔ سوزشِ دل سے سخنِ گرم
تا رکھ نہ سکے کوئی مرے حرف پر انگشت

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*نسخۂ نظامی میں اگرچہ ’دیداں‘ ہے لیکن معانی کے لحاظ سے ’دنداں‘ مناسب ہے، دیداں سہوِ کتابت ممکن ہے۔
دیداں دودہ کا جمع ہے اس سے مراد کیڑے ہیں۔ تب اس کا مطلب بنتا ہے کہ انگلیوں کو قبر کی کیڑوں کا خوراک بنا دیا۔ نسخۂ مہر اور نسخہ علامہ آسی میں لفظ دیداں ہی آیا ہے ہاں البتہ نسخہ حمیدیہ (شایع کردہ مجلسِ ترقی ادب لاہور 1983 ) میں لفظ دندان آیا ہے

63۔

رہا گر کوئی تا قیامت سلامت
پھر اک روز مرنا ہے حضرت سلامت
جگر کو مرے عشقِ خوں نابہ مشرب
لکھے ہے ’خداوندِ نعمت سلامت‘
علی اللّرغمِ دشمن، شہیدِ وفا ہوں
مبارک مبارک سلامت سلامت
نہیں گر سر و برگِ ادراک معنی
تماشاۓ نیرنگ صورت سلامت

64۔

آمدِ خط سے ہوا ہے سرد جو بازارِ دوست
دودِ شمعِ کشتہ تھا شاید خطِ رخسارِ دوست
اے دلِ ناعاقبت اندیش! ضبطِ شوق کر
کون لا سکتا ہے تابِ جلوۂ دیدارِ دوست
خانہ ویراں سازئ حیرت! تماشا کیجیۓ
صورتِ نقشِ قدم ہوں رفتۂ رفتارِ دوست
عشق میں بیدادِ رشکِ غیر نے مارا مجھے
کُشتۂ دشمن ہوں آخر، گرچہ تھا بیمارِ دوست
چشمِ ما روشن، کہ اس بے درد کا دل شاد ہے
دیدۂ پر خوں ہمارا ساغرِ سرشارِ دوست

ق

غیر یوں کرتا ہے میری پرسش اس کے ہجر میں
بے تکلّف دوست ہو جیسے کوئی غم خوارِ دوست
تاکہ میں جانوں کہ ہے اس کی رسائی واں تلک
مجھ کو دیتا ہے پیامِ وعدۂ دیدارِ دوست
جب کہ میں کرتا ہوں اپنا شکوۂ ضعفِ دماغ
سَر کرے ہے وہ حدیثِ زلفِ عنبر بارِ دوست
چپکے چپکے مجھ کو روتے دیکھ پاتا ہے اگر
ہنس کے کرتا ہے بیانِ شوخئ گفتارِ دوست
مہربانی ہاۓ دشمن کی شکایت کیجیۓ
یا بیاں کیجے سپاسِ لذّتِ آزارِ دوست
یہ غزل اپنی، مجھے جی سے پسند آتی ہےآپ
ہے ردیف شعر میں غالبؔ! ز بس تکرارِ دوست

65۔

مند گئیں کھولتے ہی کھولتے آنکھیں غالبؔ
یار لاۓ مری بالیں پہ اسے، پر کس وقت

ج

66۔

گلشن میں بند وبست بہ رنگِ دگر ہے آج
قمری کا طوق حلقۂ بیرونِ در ہے آج
آتا ہے ایک پارۂ دل ہر فغاں کے ساتھ
تارِ نفس کمندِ شکارِ اثر ہے آج
اے عافیت! کنارہ کر، اے انتظام! چل
سیلابِ گریہ در پےِ دیوار و در ہے آج

67۔

معزولئ تپش ہوئی افرازِ انتظار
چشمِ کشودہ حلقۂ بیرونِ در ہے آج

68۔

لو ہم مریضِ عشق کے بیماردار ہیں
اچھاّ اگر نہ ہو تو مسیحا کا کیا علاج!!

چ

69۔

نفَس نہ انجمنِ آرزو سے باہر کھینچ
اگر شراب نہیں انتظارِ ساغر کھینچ
"کمالِ گرمئ سعئ تلاشِ دید" نہ پوچھ
بہ رنگِ خار مرے آئینہ سے جوہر کھینچ
تجھے بہانۂ راحت ہے انتظار اے دل!
کیا ہے کس نے اشارہ کہ نازِ بسترکھینچ
تری طرف ہے بہ حسرت نظارۂ نرگس
بہ کورئ دل و چشمِ رقیب ساغر کھینچ
بہ نیم غمزہ ادا کر حقِ ودیعتِ ناز
نیامِ پردۂ زخمِ جگر سے خنجر کھینچ
مرے قدح میں ہے صہباۓ آتشِ پنہاں
بروۓ سفرہ کبابِ دلِ سمندر کھینچ

د

70۔

حسن غمزے کی کشاکش سے چھٹا میرے بعد
بارے آرام سے ہیں اہلِ جفا میرے بعد
منصبِ شیفتگی کے کوئی قابل نہ رہا
ہوئی معزولئ انداز و ادا میرے بعد
شمع بجھتی ہے تو اس میں سے دھواں اٹھتا ہے
شعلۂ عشق سیہ پوش ہوا میرے بعد
خوں ہے دل خاک میں احوالِ بتاں پر، یعنی
ان کے ناخن ہوۓ محتاجِ حنا میرے بعد
درخورِ عرض نہیں جوہرِ بیداد کو جا
نگہِ ناز ہے سرمے سے خفا میرے بعد
ہے جنوں اہلِ جنوں کے لۓ آغوشِ وداع
چاک ہوتا ہے گریباں سے جدا میرے بعد
کون ہوتا ہے حریفِ مۓ مرد افگنِ عشق
ہے مکّرر لبِ ساقی میں صلا* میرے بعد
غم سے مرتا ہوں کہ اتنا نہیں دنیا میں کوئی
کہ کرے تعزیتِ مہر و وفا میرے بعد
آۓ ہے بے کسئ عشق پہ رونا غالبؔ
کس کے گھر جاۓ گا سیلابِ بلا میرے بعد

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*نسخۂ حمیدیہ میں ہے ’لبِ ساقی پہ‘۔ اکثر نسخوں میں بعد میں یہی املا ہے۔
* نسخۂ مہر، آسی اور باقی نسخوں میں لفظ 'پہ' ہے۔

71۔

ہلاکِ بے خبری نغمۂ وجود و عدم
جہان و اہلِ جہاں سے جہاں جہاں آباد

72۔

تجھ سے مقابلے کی کسے تاب ہے ولے
میرا لہو بھی خوب ہے تیری حنا کے بعد

उर्दू ग़ज़ल By मिर्जा ग़लिब इन हिन्दी By Bee





फर हवा वक़्त कि हो बाल कुशा मोज शराब
दे बत मे को दिल व दसत शना मोज शराब
पोछ मत वजह सीह मसत अरबाब चमन
सए ताक में होती है हौवा मोज शराब
जो हवा ग़रक़ मे बख़त रसा रखता हे
सर पह गज़रे पह भी है बाल हमा मोज शराब
है यह बरसात वह मोसम कि अजब कया है अगर
मोज हसती को करे फ़ीज हवा मोज शराब
चार मोज अठती है तोफ़ान तरब से हर सो
मोज गल मोज शफ़क़ मोज सबा मोज शराब
जस क़दर रोह नबाती है जिगर तशन नाज़
दे है तसकीं बौदौम आब बक़ा मोज शराब
बस कि दोड़े है रग ताक में ख़ों होहोकर
शहपर रनग से है बाल कशा मोज शराब
मोज ग़ुल से चराग़ां है गज़रगाह ख़याल
है तसोर में ज़ बस जलोह नमा मोज शराब
नशे के परदे में है महो तमाशा दमाग़
बस कि रखती है सर नशो व नमा मोज शराब
एक अालम पह हैं तोफ़ान कीफ़ीत फ़सल
मोज सबज़ नोख़ीज़ से ता मोज शराब
शरह हनगाम मसती हे ज़हे मोसम गल
रहबर क़तरह बह दरया हे ख़ोशा मोज शराब
होश अड़ते हैं मरे जलो ग़ुल दीख असद
फर हवा वक़त कि हो बाल कुशा मोज शराब






پھر ہوا وقت کہ ہو بال کُشا موجِ شراب

دے بطِ مے کو دل و دستِ شنا موجِ شراب

پوچھ مت وجہ سیہ مستئِ اربابِ چمن

سایۂ تاک میں ہوتی ہے ہَوا موجِ شراب

جو ہوا غرقۂ مے بختِ رسا رکھتا ہے

سر پہ گزرے پہ بھی ہے بالِ ہما موجِ شراب

ہے یہ برسات وہ موسم کہ عجب کیا ہے اگر

موجِ ہستی کو کرے فیضِ ہوا موجِ شراب

چار موج اٹھتی ہے طوفانِ طرب سے ہر سو

موجِ گل، موجِ شفق، موجِ صبا، موجِ شراب

جس قدر روح نباتی ہے جگر تشنۂ ناز

دے ہے تسکیں بَدَمِ آبِ بقا موجِ شراب

بس کہ دوڑے ہے رگِ تاک میں خوں ہوہوکر

شہپرِ رنگ سے ہے بال کشا موجِ شراب

موجۂ گل سے چراغاں ہے گزرگاہِ خیال

ہے تصوّر میں ز بس جلوہ نما موجِ شراب

نشّے کے پردے میں ہے محوِ تماشاۓ دماغ

بس کہ رکھتی ہے سرِ نشو و نما موجِ شراب

ایک عالم پہ ہیں طوفانئِ کیفیّتِ فصل

موجۂ سبزۂ نوخیز سے تا موجِ شراب

شرحِ ہنگامۂ مستی ہے، زہے! موسمِ گل

رہبرِ قطرہ بہ دریا ہے، خوشا موجِ شراب

ہوش اڑتے ہیں مرے، جلوۂ گل دیکھ، اسدؔ

پھر ہوا وقت، کہ ہو بال کُشا موجِ شراب

Urdu Ghazal BY Mirza Ghalib in hindi





















अलफ़



नक़्शा फ़रयादी हे िकस की शोख़ी तहरीर का
काग़ज़ी है पीरहन हर पीकर तसवीर का
कओकओ सख्त जानी हाे तनहाई न पोछ
सुबह करना शाम का लाना है जवे शीर का
जज़ब बे अख़तयार शौक़ दीखा चाहये
सीन शमशीर से बाहर है दम शमशीर का
आगही दाम शनीदन जस क़दर चाहे बछाे
मदाा अनक़ा है अपने अालम तक़रीर का
बस कि हों ग़ालब असीरी में भी आतश ज़ीर पा
मवे आतश दीदह है हलक़ह मरी ज़नजीर का



जराहत तहफ़ह अलमास अरमग़ां दाग़ जिगर हदीह
मबारक बाद असद ग़मख़वार जान दरदमनद आया



जज़ क़ीस और कोई न आया बरवे कार
सहरा मगर बह तनग चशम हुसोद था
आशफ़तगी ने नक़श सवीदा कया दरसत
ज़ाहर हवा कि दाग का सरमएह दोद था
था ख़वाब में ख़याल को तझ से माामलह
जब आनख खल गी न ज़यां था न सोद था
लीता हों मकतब ग़म दिल में सबक़ हनोज़
ढानपा कफ़न ने दाग़ अयोब बरहनगी
मीं वरनह हर लिबास में ननग वजोद था
तीशे बग़ीर मर न सका कोहकन असद
सरगशत ख़मार रसोम व क़योद था


कहते हो न दीं गे हम दिल अगर पड़ा पएा
दिल कहां कि गुम कीजये हम ने मदाा पएा
अशक़ से तबयात ने ज़ीसत का मज़ा पएा
दर्द की दवा पाई दर्द बे दवा पएा
दोस्त दार दुश्मन हे अातमाद दिल मालूम
आह बे असर दीखी नालह नारसा पएा
सादगी व परकारी बे ख़ोदी व हशयारी
हसन को तग़ाफ़ल में जरत आज़मा पएा
ग़नचह फर लगा खलने आज हम ने अपना दिल
ख़ों कया हवा दीखा गुम कया हवा पएा
हाल दिल नहीं मालोम लीकन इस क़दर यानी
हम ने बार हा ढोनढा तुम ने बारहा पएा
शोर पनद नासह ने ज़ख़म पर नमक छड़का
आप से कोई पोछे तुम ने कया मज़ा पएा



है कहां तमना का दूसरा क़दम या रब
हम ने दशत अमकां को एक नक़श पा पएा




दिल मेरा सोज़ नहां से बे महाबा जाल गया
आतश ख़ामोश की माननद गोया जाल गया
दिल में ज़ोक़ वसल व याद यार तक बाक़ी नहीं
आग इस घर में लगी एसी कि जो था जाल गया
में अदम से भी परे हों वरनह ग़ाफ़ल बारहा
मीरी आह आतशीं से बाल अनक़ा जाल गया
अरज कीजे जोहर अनदीशह की गरमी कहां
कुछ ख़याल आया था वहशत का कि सहरा जाल गया
दिल नहीं तझ को दखाता वरनह दाग़ों की बहार
अस चराग़ां का करों कया कारफ़रमा जाल गया
में हों और अफ़सरदगी की आरज़ो ग़ालब कि दल
दीख कर तरज़ तपाक अहल दनया जाल गया



शोक़ हर रनग रक़ीब सरोसामां नकला
क़ीस तसवीर के परदे में भी अरयां नकला
ज़ख़म ने दाद न दी तनग दिल की यारब
तीर भी सीन बसमल से पौराफ़शां नकला
बवे गल नाल दल दोद चराग़ महफ़ल
जो तरी बज़म से नकला सौ परीशां नकला
दल हसरत ज़दह था माद लज़त दरद
काम यारों का बह क़दर लब व दनदां नकला
अे नौ आमोज़ फ़ना हमत दशवार पसनद
सख्त मुश्किल है कि यह काम भी आसां नकला
दिल में फर गरये ने खाक शोर अठएा ग़ालब
आह जो क़तरह न नकला था सुो तोफ़ां नकला
।।।।।
नसख़ हमीदीह में मज़ीद शार
शोख़ रनग हना ख़ोन वफ़ा से कब तक
आख़र अे अहद शकन तो भी पशीमां नकला



धमकी में मर गया जो न बाब नबरद था
अशक़ नबरद पीशह तलबगार मर्द था
था ज़नदगी में मरग का खटका लगा हवा
अड़ने से पीशतर भी मरा रनग ज़रद था
तालीफ़ नसख़ह हाे वफ़ा कर रहा था में
मजमवा ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था
दिल ताजगर कि साहल दरयाे ख़ों है अब
इस रह गज़र में जलो गल आगे गरद था
जाती है कोई कशमकश अनदोह अशक़ की !
दिल भी अगर गया तो वुही दिल का दर्द था
अहबाब चारह साज़ वहशत न कर सके
ज़नदां में भी ख़याल बयाबां नोरद था
यह लाश बे कफ़न असद ख़सतह जां की है
हक़ मग़फ़रत करे अजब आज़ाद मर्द था



शमार सबहह मरग़ोब बत मशकल पसन्द आया
तमाशाे बह यक कफ़ बुरदन सद दल पसन्द आया
बह फ़ीज बे दली नोमीद जओीद आसां है
कशाश को हमारा अक़द मुश्किल पसन्द आया
हवाे सीरगल आीन बे महर क़ातिल
कि अनदाज़ बख़ों ग़लतीदनबसमल पसन्द आया

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* असल नसख़ नज़ामी में ग़लतीदन है जो सहो कताबत हे



दहर में नक़श वफ़ा वजह तसली न हवा
है यह वह लफ़्ज़ कि शरमनद मानी न हवा
सबज़ खत से तरा काकल सरकश न दबा
यह ज़मरद भी हरीफ़ दम अफ़ाई न हवा
में ने चाहा था कि अनदोह वफ़ा से छोटों
वह सतमगर मरे मरने पह भी राजी न हवा
दिल गज़र गाह ख़याल मे व साग़र ही सही
गर नफ़ौस जाद सरमनज़ल तक़वी न हवा
हों तरे वादह न करने पर भी राजी कि कभी
गोश मनत कश गलबानग तसली न हवा
किस से महरोम क़िस्मत की शकएत कीजये
हम ने चाहा था कि मर जाईं सौ वह भी न हवा
मर गया सदम यक जनबश लब से ग़ालब
नातवानी से हरीफ़ दम अीसी न हवा

नसख़ हमीदीह में मज़ीद
वसात रहमत हक़ दीख कि बख़शा जा
मझ सा काफ़रकह जो ममनोन माासी न हवा



सतएश गर है ज़ाहद ، इस क़दर जस बाग़ रजवां का
वह खाक गलदसतह है हम बीख़ोदों के ताक़ नसयां का
बयां कया कीजे बीदादकओश हाे मख़गां का
कि हर यक क़तरह ख़ों दानह है तसबीह मरजां का
न आी सतोत क़ातिल भी माना ، मीरे नालों को
लिया दानतों में जो तनका ، हवा रीशह नौीौसतां का
दखां गा तमाशह ، दी अगर फ़रसत ज़माने ने
मरा हर दाग़ दिल ، अक तख़म है सरो चराग़ां का
कया आीनह ख़ाने का वह नक़शह तीरे जलवे ने
करे जो परतो ख़ुोरशीद अालम शबनमसतां का
मरी तामीर में मुजमर है खाक सूरत ख़राबी की
हयोली बरक़ ख़रमन का ، है ख़ोन गरम दहक़ां का
उगा है घर में हर सुो सबज़ह ، वीरानी तमाशह कर
मदार अब खोदने पर घास के हे मीरे दरबां का
ख़मोशी में नहां ، ख़ों गशतह लाखों आरज़वीं हैं
चराग़ मुरदह हों ، में बे ज़बां ، गोर ग़रीबां का
हनोज़ खाक परतो नक़श ख़याल यार बाक़ी है
दल अफ़सरदह ، गोया हजरह है योसफ़ के ज़नदां का
नहीं मालूम ، किस किस का लहो पानी हवा होगा
क़यामत है सरशक आलोदह होना तीरी मख़गां का
नज़र में है हमारी जाद राह फ़ना ग़ालब
कि यह शीराज़ह है अालौम के अजज़ाे परीशां का

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* नसख़ हसरत मोहानी में सरगशतह



न होगा यक बयाबां मानदगी से ज़ोक़ कम मीरा
हबाब मोज रफ़्तार है नक़श क़दम मीरा
महबत थी चमन से लीकन अब यह बे दमाग़ी हे
कि मोज बवे ग़ुल से नाक में आता है दम मीरा



सरापा रहन अशक़ व नागज़ीर अलफ़त हसती
अबादत बरक़ की करता हों और अफ़सोस हाशिल का
बक़दर ज़रफ़ है साक़ी ख़मार तशनह कामी भी
जोतो दरयाे मे हे तो में ख़मयाज़ह हों साहल का



महरम नहीं है तो ही नवा हाे राज़ का
यां वरनह जो हजाब हे परदह है साज़ का
रनग शकसतह सबह बहार नज़ारह हे
यह वक़्त है शगफ़तन ग़ुल हाे नाज़ का
तो और सवे ग़ीर नज़रहाे तीज़ तीज़
में और दुख तरी मख़ह हाे दराज़ का
सरफ़ह है जबत आह में मीरा वगरनह मीं
तुामह हों एक ही नफ़ौस जां गदाज़ का
हैं बसकह जोश बादह से शीशे अछल रहे
हर गोश बसात है सर शीशह बाज़ का
कओश का दिल करे है तक़ाजा कि है हनोज़
नाख़न पह क़र्ज़ इस गरह नीम बाज़ का
ताराज कओश ग़म हजरां हवा असद
सीनह कि था दफ़ीनह गहर हाे राज़ का




बज़म शाहनशाह में अशाार का दफ़तर खला
रखयो यारब यह दर गनजीन गोहर खला
शब हवी फर अनजम रख़शनदह का मन्ज़र खला
अस तकलफ़ से कि गोया बतकदे का डर खला
गरचह हों दयवानह पर कयों दोस्त का खां फ़रीब
आसतीं में दशनह पनहां हाथ में नशतर खला
गो न समझों इस की बातीं गोनह पां इस का भीद
पर यह कया कम हे कि मझ से वह परी पीकर खला
है ख़याल हुसन में हुसन अमल का सा ख़याल
ख़लद का खाक डर है मीरी गोर के अन्दर खला
मनह न खलने परहे वह अालम कि दीखा ही नहीं
ज़लफ़ से बड़ कर नक़ाब उस शोख़ के मनह पर खला
डर पह रहने को कहा और कहह के कीसा फर गया
जतने अरसे में मरा लपटा हवा बसतर खला
कयों अनधीरी है शब ग़म है बलां का नज़ोल
आज उधर ही को रहे गा दीद अख़तर खला
कया रहों ग़रबत में ख़ोश जब हो हवादस का यह हाल
नामह लाता है वतन से नामह बर अकसर खला
इस की अमत में हों मौीं मीरे रहीं कयों काम बनद
वासते जस शह के ग़ालब गनबद बे डर खला



शब कि बरक़ सोज़ दिल से ज़हर अबर आब था
शाल जवालह हर खाक हलक़ गरदाब था
वां करम को अज़र बारिश था अनां गीर ख़राम
गरये से यां पनब बालश कफ़ सीलाब था
वां ख़ोद आराई को था मोती परोने का ख़याल
यां हजोम अशक में तार नगह नएाब था
जलो ग़ुल ने कया था वां चराग़ां आब जो
यां रवां मख़गान चशम तर से ख़ोन नाब था
यां सर परशोर बे ख़वाबी से था दयवार जो
वां वह फ़रक़ नाज़ महो बालश कमख़वाब था
यां नफ़ौस करता था रोशन शमा बज़म बेख़ोदी
जलो ग़ुल वां बसात सहबत अहबाब था
फ़र्श से ता अरश वां तोफ़ां था मोज रनग का
यां ज़मीं से आसमां तक सोख़तन का बाब था
नागहां इस रनग से ख़ों नाबह टपकाने लगा
दिल कि ज़ोक़ कओश नाख़न से लज़त याब था



नाल दिल में शब अनदाज़ असर नएाब था
था सपनदबज़म वसल ग़ीर ، गो बीताब था
मौक़दम सीलाब से दिल कया नशात आहनग है !
ख़ान अाशक़ मगर साज़ सदाे आब था
नाज़श एाम ख़ाकसतर नशीनी ، कया कहों
पहलवे अनदीशह ، वक़फ़ बसतर सनजाब था
कुछ न की अपने जुनोन नारसा ने ، वरनह यां
ज़रह ज़रह रोकश ख़ुरशीद अालम ताब था

क़

आज कयों परवा नहीं अपने असीरों की तझे ؟
कुल तलक तीरा भी दिल महरोोफ़ा का बाब था
याद कर वह दिन कि हर यक हलक़ह तीरे दाम का
अनतज़ार सीद में अक दीद बीख़वाब था
में ने रोका रात ग़ालब को ، वगरनह दीखते
उस के सील गरीह में ، गरदुों कफ़ सीलाब था



एक एक क़तरे का मझे दीना पड़ा हसाब
ख़ोन जिगर वदयात मख़गान यार था
अब में हों और मातम यक शहर आरज़ो
तोड़ा जो तो ने आीनह तमसाल दार था
गलयों में मीरी नाश को खीनचे फरो कि मीं
जां दाद हवाे सर रहगज़ार था
मोज सराब दशत वफ़ा का न पोछ हाल
हर ज़रह मसल जोहर तीग़ आब दार था
कम जानते थे हम भी ग़म अशक़ को पर अब
दीखा तो कम हवे पह ग़म रोज़गार था



बसकह दशवार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मीसर नहीं अनसां होना
गरीह चाहे है ख़राबी मरे काशाने की
डर व दयवार से टपके है बयाबां होना
वा दयवानग शौक़ कि हर दम मझ को
आप जाना उधर और आप ही हीरां होना
जलोह अज़ बसकह तक़ाजाे नगह करता हे
जोहर आीनह भी चाहे है मख़गां होना
अशरत क़त्ल गह अहल तमना मत पोछ
अीद नज़ारह है शमशीर का अरयां होना
ले गे ख़ाक में हम दाग़ तमनाे नशात
तो हो और आप बह सद रनग गलसतां होना
अशरत पार दल ज़ख़म तमना खाना
लज़त रीश जगर ग़रक़ नमकदां होना
की मरे क़त्ल के बाद इस ने जफ़ा से तोबह
हाे इस ज़ोद पशीमां का पशीमां होना
हीफ़ उस चार गरह कपड़े की क़िस्मत ग़ालब
जस की क़िस्मत में हो अाशक़ का गरीबां होना

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
* नसख़ ताहर में " परीशां



शब ख़मार शोक़ साक़ी रसतख़ीज़ अनदाज़ह था
ता महीत बादह सूरत ख़ान ख़मयाज़ह था
यक क़दम वहशत से दरस दफ़तर अमकां खला
जादह अजज़ाे दो अालम दशत का शीराज़ह था
माना वहशत ख़रामी हाे लीले कौन हे
ख़ान मजनोन सहरा गरद बे दरवाज़ह था
पोछ मत रसवाई अनदाज़ असतग़नाे हसन
दोस्त मरहोन हना रख़सार रहन ग़ाज़ह था
नाल दिल ने दये ओराक़ लख़त दिल बह बाद
यादगार नालह खाक दयवान बे शीराज़ह था



दोस्त ग़मख़वारी में मीरी साई फ़रमाईं गे कया
ज़ख़म के भरने तलक नाख़न न बड़ जाईं गे कया
बे नयाज़ी हद्द से गज़री बनदह परोर कब तलक
हम कहीं गे हाल दल और आप फ़रमाईं गे कया
हजरत नासह गर आीं दीदह व दिल फ़रश राह
कोई मझ को यह तो समझा दो कि समझाईं गे कया
आज वां तीग़ व कफ़न बानधे हवे जाता हों मीं
अज़र मीरे क़त्ल करने में वह अब लाईं गे कया
गर कया नासह ने हम को क़ीद अच्चा यों सही
यह जनोन अशक़ के अनदाज़ छट जाईं गे कया
ख़ानह ज़ाद ज़लफ़ हीं ज़नजीर से भागीं गे कयों
हैं गरफ़तार वफ़ा ज़नदां से घबराईं गे कया
है अब इस मामोरे में क़हत ग़म अलफ़त असद
हम ने यह माना कि दली में रहीं खाईं गे कया



यह न थी हमारी क़िस्मत कि वसाल यार होताा
अगर और जीते रहते ، यही इन्तज़ार होता
तरे वादे पर जे हम तो यह जान झोट जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर अातबार होता
तरी नाज़की से जाना कि बनधा था अहद बोदा
कभी तो न तोड़ सकता अगर असतवार होता
कोई मीरे दिल से पोछे तरे तीर नीम कश को
यह ख़लश कहां से होती जो जिगर के पार होता
यह कहां की दोसती है कि बने हैं दोस्त ना सह
कोई चारह साज़ होता कोई घाम गसार होता
रग सनग से टपकता वह लहो कि फर न थमता
जसे घाम समझ रहे हो यह अगर शरार होता
घाम अगर चह जां गसल है पह कहां बचीं कि दिल है
ग़म अशक़ गर न होता घाम रोज़गार होता
कहों किस से में कि कया हेशब घाम बरी बला है
मझे कया बुरा था मरना अगर एक बार होता
हवे मर के हम जो रसवा हवे कयों न ग़रक़ दरया
न कभी जनाज़ह अठता न कहीं मज़ार होता
असे कौन दीख सकता कि यगानह है वह यकता
जो दवी की बो भी होती तो कहीं दो चार होता
यह मसाल तसोफ़ यह तरा बयान ग़ालब
तझे हम वली समझते जो न बादह ख़वार होता



होस को है नशात कार कया कया
न हो मरना तो जीने का मज़ा कया
तजाहल पीशगी से मदाा कया
कहां तक अे सरापा नाज़ कया कया
नवाज़श हाे बे जा दीखता हों
शकएत हाे रनगीं का गला कया
नगाह बे महाबा चाहता हों
तग़ाफ़ल हाे तमकीं आज़मा कया
फ़रोग़ शाल ख़स यक नफ़ौस हे
होस को पास नामोस वफ़ा कया
नफ़स मोज महीत बीख़ोदी हे
तग़ाफ़ल हाे साक़ी का गला कया
दमाग़ अतर पीराहन नहीं हे
ग़म आवारगी हाे सबा कया
दल हर क़तरह है साज़ अना अलबहर
हम इस के हीं हमारा पोछना कया
महाबा कया हे मौीं जामन अधर दीख
शहीदान नगह का ख़ों बहा कया
सुन अे ग़ारत गर जनस वफ़ा सन
शकसत क़ीमत दिल की सदा कया
कया किस ने जगरदारी का दावी
शकीब ख़ातर अाशक़ भला कया
यह क़ातिल वाद सबर आज़मा कयों
यह काफ़िर फ़तन ताक़त रबा कया
बलाे जां है ग़ालब इस की हर बात
अबारत कया अशारत कया अदा कया



दरख़ोर क़हर व ग़जब जब कोई हम सा न हवा
फर ग़लत कया है कि हम सा कोई पीदा न हवा
बनदगी में भी वह आज़ादह व ख़ोदबीं हीं कि हम
अलटे फर आे दर काबह अगर वा न हवा
सब को मक़बोल है दावी तरी यकताई का
रोबरो कोई बत आीनह सीमा न हवा
कम नहीं नाज़श हमनाम चशम ख़ोबां
तीरा बीमार बुरा कया हे गर अच्चा न हवा
सीने का दाग है वह नालह कि लब तक न गया
ख़ाक का रज़क़ है वह क़तरह कि दरया न हवा
नाम का मीरे है जो दख कि किसी को न मला
काम में मीरे है जो फ़तनह कि बरपा न हवा
हर बुन मो से दम ज़कर न टपके ख़ोननाब
हमज़ह का क़सह हवा अशक़ का चरचा न हवा
क़तरे में दजलह दखाई न दे और जज़ो में कुल
खील लड़कों का हवा दीद बीना न हवा
थी ख़बर गरम कि ग़ालब के उड़ीं गे परज़े
दीखने हम भी गे थे पह तमाशा न हवा

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काम का है मरे वह फ़तनह कि बरपा न हवा नसख़ हसरत नसख़ महर



असद हम वह जनों जोलां गदाे बे सर व पा हीं
कि है सर पनज मख़गान आहो पशत ख़ार अपना



प नज़र करम तहफ़ह है शरम ना रसाई का
बह ख़ों ग़लतीद सद रनग दावी पारसाई का
न हो हसन तमाशा दोसत रसवा बे वफ़ाई का
बह महर सद नज़र साबत है दावी पारसाई का
ज़कात हसन दे अे जलो बीनश कि महर आसा
चराग़ ख़ान दरवीश हो कासह गदाई का
न मारा जान कर बे जरम ग़ाफ़ल तीरी गर्दन पर
रहा माननद ख़ोन बे गनह हक़ आशनाई का
तमनाे ज़बां महो सपास बे ज़बानी हे
मटा जस से तक़ाजा शको बे दोस्त व पाई का
वही खाक बात है जो यां नफ़ौस वां नकहत ग़ुल हे
चमन का जलोह बाास है मरी रनगीं नवाई का
दहान हर बत पीग़ारह जुो ज़नजीर रसवाई
अदम तक बे वफ़ा चरचा है तीरी बे वफ़ाई का
न दे नामे को अतना तोल ग़ालब मख़तसर लिख दे
कि हसरत सनज हों अरज सितम हाे जदाई का

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नसख़ हमीदीह नज़ामी हसरत और महर के नसख़ों में लफ़्ज़ क़ातल हे



गर न अनदोह शब फ़रक़त बयां हो जाे गा
बे तकलफ़ दाग़ मह मुहर दहां होजाे गा
ज़हरह गर एसा ही शाम हजर में होता है आब
पर तो महताब सील ख़ानमां होजाे गा
ले तो लों सोते में इस के पां का बोसह मगर
एसी बातों से वह काफ़िर बदगमां होजाे गा
दिल को हम सरफ़ वफ़ा समझे थे कया मालूम था
यानी यह पहले ही नज़र अमतहां होजाे गा
सब के दिल में है जगह तीरी जो तो राजी हवा
मझ पह गोया खाक ज़मानह महरबां होजाे गा
गर नगाह गरम फ़रमाती रही तालीम जबत
शालह ख़स मीं जीसे ख़ों रग मीं नहां होजाे गा
बाघ में मझ को न ले जा वरनह मीरे हाल पर
हर गल तर एक चशम ख़ों फ़शां होजाे गा
वा गर मेरा तरा अनसाफ़ महशर में न हो
अब तलक तो यह तोक़ा है कि वां होजाे गा
फ़ादह कया सोच आख़र तो भी दाना है असद
दोसती नादां की हे जी का ज़यां होजाे गा



दर्द मनत कश दवा न हवा
में न अच्चा हवा बुरा न हवा
जमा करते हो कयों रक़ीबों को
खाक तमाशा हवा गला न हवा
हम कहां क़िस्मत आज़माने जाईं
तो ही जब ख़नजर आज़मा न हवा
कतने शीरीं हैं तीरे लब कह रक़ीब
गालयां ख के बे मज़ा न हवा
है ख़बर गरम उन के आने की
आज ही घर में बोरया न हवा
कया वह नमरोद की ख़दाई थी
बनदगी में मरा भला न हवा
जान दी दी हवी असी की थी
हक़ तो यों है कि हक़ अदा न हवा
ज़ख़म गर दब गया लहो न थमा
काम गर रुक गया रवा न हवा
रहज़नी है कि दिल सतानी हे
ले के दल दलसतां रवानह हवा
कुछ तो पड़े कि लूग कहते हीं
आज ग़ालब गज़ल सरा न हवा

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* नसख़ महर नसख़ अलामह असी में यों के बजा ए यह अया हे



गलह है शौक़ को दिल में भी तनग जा का
गहर में महो हवा अजतराब दरया का
यह जानता हों कि तो और पासख़ मकतोब
मगर सितम ज़दह हों ज़ोक़ ख़ामह फ़रसा का
हनाे पाे ख़ज़ां है बहार अगर है यही
दवाम कलफ़त ख़ातर है अीश दनया का
ग़म फ़िराक़ में तकलीफ़ सीर बाघ न दो
मझे दमाग़ नहीं ख़नदह हाे बे जा का
हनोज़ महरम हसन को तरसता हों
करे है हर बुन मो काम चशम बीना का
दिल इस को पहले ही नाज़ व अदा से दे बीठे
हमें दमाग़ कहां हसन के तक़ाजा का
न कहह कि गरीह बह मक़दार हसरत दिल हे
मरी नगाह में है जमा व ख़रच दरया का
फ़लक को दीख के करता हों उस को याद असद
जफ़ा में इस की है अनदाज़ कारफ़रमा का

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नसख़ नज़ामी की अमला है ख़नद हा



क़तर मे बस कि हीरत से नफ़ौस परोर हवा
ख़त जाम मे सरासर रशत गोहर हवा
अातबार अशक़ की ख़ानह ख़राबी दीखना
ग़ीर ने की आह लीकन वह ख़फ़ा मझ पर हवा



जब बह तक़रीब सफ़र यार ने महमल बानधा
तपश शौक़ ने हर ज़रे पह खाक दिल बानधा
अहल बीनश ने बह हीरत कद शोख़ नाज़
जोहर आीनह को तोत बसमल बानधा
यास व अमीद ने खाक अरौबदह मीदां मानगा
अजज़ हमत ने तलसम दल साल बानधा
न बनधे तशनग ज़ोक़ के मजमों ग़ालब
गरचह दिल खोल के दरया को भी साहल बानधा



में और बज़म मे से यों तशनह काम आं
गर में ने की थी तोबह साक़ी को कया हवा था
है एक तीर जस में दोनों छदे पड़ी हीं
वह दिन गे कि अपना दिल से जिगर जुदा था
दरमानदगी में ग़ालब कुछ बन पड़ी तो जानों
जब रशतह बे गरह था नाख़न गरह कशा था



घर हमारा जो न रोते भी तो वीरां होता
बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता
तनग दिल का गलह कया यह वह काफ़िर दिल हे
कि अगर तनग न होता तो परीशां होता
बाद यक अमर वौरा बार तो दीता बारे
काश रजवां ही दर यार का दरबां होता



न था कुछ तो खुद था कुछ न होता तो खुद होता
डुबोया मझ को होने ने न होता में तो कया होता
हुवा जब घाम से यों बे हस तो घाम कया सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानो पर धरा होता
हवी मदत कि ग़ालब मरगया पर याद आता हे
वह हर खाक बात पर कहना कि यों होता तो कया होता



यक ज़र ज़मीं नहीं बे कार बाघ का
यां जादह भी फ़तीलह है लाले के दाग का
बे मे कसे है ताक़त आशोब आगही
खीनचा है अजज़ होसलह ने खत एाग़ का
बुलबल के कारोबार पह हैं ख़नदह हाे गल
कहते हैं जस को अशक़ ख़लल है दमाग़ का
ताज़ह नहीं है नश फ़कर सख़न मझे
तरयाक क़दीम हों दुोद चराग़ का
सौ बार बनद अशक़ से आज़ाद हम हवे
पर कया करीं कि दिल ही अदो है फ़राग़ का
बे ख़ोन दिल है चशम में मोज नगह ग़बार
यह मे कदह ख़राब है मे के सराग़ का
बाग़ शगफ़तह तीरा बसात नशात दल
अबर बहार ख़मकदह कस के दमाग़ का



वह मीरी चीन जबीं से ग़म पनहां समझा
राज़ मकतोब बह बे रबत अनवां समझा
यक अलफ़ बीश नहीं सक़ील आीनह हनोज़
चाक करता हों में जब से कि गरीबां समझा
शरह असबाब गरफ़तार ख़ातर मत पोछ
इस क़दर तनग हवा दिल कि में ज़नदां समझा
बदगमानी ने न चाहा असे सरगरम ख़राम
रख़ पह हर क़तरह अरक़ दीद हीरां समझा
अजज़से अपने यह जाना कि वह बुद ख़ो होगा
नबज ख़स से तपश शाल सोज़ां समझा
सफ़र अशक़ में की जाफ़ ने राहत तलबी
हर क़दम साे को में अपने शबसतान समझा
था गरीज़ां मख़ यार से दिल ता दम मरग
दफ़ा पीकान क़जा अस क़दर आसां समझा
दिल दिया जान के कयों इस को वफ़ादार असद
ग़लती की कि जो काफ़िर को मसलमां समझा



फर मझे दीद तर याद आया
दल जिगर तशन फ़रयाद आया
दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फर तरा वक़त सफ़र याद आया
सादगी हाे तमना यानी
फर वह नीरनग नज़र याद आया
अज़र वामानदगी अे हसरत दल
नालह करता था जिगर याद आया
ज़नदगी यों भी गज़र ही जाती
कयों तरा राह गज़र याद आया
कया ही रजवां से लड़ाई होगी
घर तरा ख़लद में गर याद आया
आह वह जरत फ़रयाद कहां
दिल से तनग आके जिगर याद आया
फर तीरे कोचे को जाता है ख़याल
दल गुम गशतह मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी हे
दशत को दीख के घर याद आया
में ने मजनों पह लड़कपन में असद
सनग अठएा था कि सर याद आया



हवी ताख़ीर तो कुछ बाास ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई अनां गीर भी था
तुम से बे जा है मझे अपनी तबाही का गलह
इस में कुछ शाब ख़ोबी तक़दीर भी था
तो मझे भूल गया हो तो पता बतला दों
कभी फ़तराक में तीरे कोई नख़चीर भी था
क़ीद में है तरे वहशी को वही ज़लफ़ की याद
हां कुछ खाक रनज गरानबारी ज़नजीर भी था
बजली खाक कोनद गी आँखों के आगे तो कया
बात करते कि में लब तशन तक़रीर भी था
योसफ़ इस को कहों और कुछ न कहे ख़ीर हवी
गर बगड़ बीठे तो में लाक़ ताज़ीर भी था
दीख कर ग़ीर को हो कयों न कलीजा ठनडा
नालह करता था वले तालब तासीर भी था
पीशे में अीब नहीं रखये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशफ़तह सरों में वह जवां मीर भी था
हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़र उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था
पकड़े जाते हैं फ़रशतों के लखे पर नाहक़
आदमी कोई हमारा ौदम तहरीर भी था
रीख़ते के तमहीं असताद नहीं हो ग़ालब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था



लब ख़शक डर तशनगी मरदगां का
ज़यारत कदह हों दिल आज़रदगां का
हमह ना अमीदी हमह बुद गमानी
में दिल हों फ़रीब वफ़ा ख़ोरदगां का



तो दोस्त किसी का भी सतमगर न हवा था
ओरों पह है वह ज़लम कि मझ पर न हवा था
छोड़ा मह नख़शब की तरह दसत क़जा ने
ख़ोरशीद हनोज़ इस के बराबर न हवा था
तोफ़ीक़ बह अनदाज़ हमत है अज़ल से
आँखों में है वह क़तरह कि गोहर न हवा था
जब तक कि न दीखा था क़द यार का अालम
में मातक़द फ़तन महशर न हवा था
में सादह दल आज़रदगी यार से ख़ोश हों
यानी सबक़ शोक़ मकरर न हवा था
दरयाे माासी ुतनक आबी से हवा ख़शक
मेरा सर दामन भी अभी तर न हवा था
जारी थी असद दाग़ जिगर से मरी तहसील
आ तशकदह जागीर सौमौनदर न हवा था



शब कि वह मजलस फ़रोज़ ख़लोत नामोस था
रशत हर शमा ख़ार कसोत फ़ानोस था
मशहद अाशक़ से कोसों तक जो उगती है हना
किस क़दर या रब हलाक हसरत पाबोस था
हासल अलफ़त न दीखा जज़ शकसत आरज़ो
दिल बह दिल पयोसतह गोया यक लब अफ़सोस था
कया करों बीमार घाम की फ़राग़त का बयां
जो कि खएा ख़ोन दल बे मनत कीमोस था



आीनह दीख अपना सा मनह ले के रह गे
साहब को दिल न दीने पह कितना ग़रोर था
क़ासद को अपने हाथ से गर्दन न मारये
इस की ख़ता नहीं है यह मेरा क़सूर था



जाफ़ जनों को वक़त तपश डर भी दूर था
खाक घर में मख़तसर सा बयाबां जरोर था



फ़ना को अशक़ है बे मक़सदां हीरत परसतारां
नहीं रफ़तार अमर तीज़ रो पाबनद मतलब हा



अरज नयाज़ अशक़ के क़ाबल नहीं रहा
जस दिल पह नाज़ था मझे वह दिल नहीं रहा
जाता हों दाग़ हसरत हसती लिये हवे
हों शमा कशतह दरख़ोर महफ़िल नहीं रहा
मरने की अे दिल और ही तदबीर कर कि में
शएान दोस्त व ख़नजर क़ातिल नहीं रहा
बर रो शश जहत दर आीनह बाज़ है
यां अमतयाज़ नाक़स व कामल नहीं रहा
वा कर दये हैं शौक़ ने बनद नक़ाब हसन
ग़ीर अज़ नगाह अब कोई हाल नहीं रहा
गो में रहा रहीन सितम हाे रोज़गार
लीकन तरे ख़याल से ग़ाफ़ल नहीं रहा
दिल से हवाे कशत वफ़ा मट गी कि वां
हाशिल सवाे हसरत हाशिल नहीं रहा
बीदाद अशक़ से नहीं डरता मगर असद
जस दिल पह नाज़ था मझे वह दिल नहीं रहा



रशक कहता है कि इस का ग़ीर से अख़लास हीफ़
अक़्ल कहती है कि वह बे महर किस का आशना
ज़रह ज़रह साग़र मे ख़ान नीरनग है
गरदश मजनों बह चशमकहाे लीली आशना
शौक़ है सामां तराज़ नाज़श अरबाब अजज़
ज़रह सहरा दोस्त गाह व क़तरह दरया आशना
में और एक आफ़त का टकड़ा वह दल वहशी कह है
अाफ़ीत का दुश्मन और आवारगी का आशना
शकोह सनज रशक हम दीगर न रहना चाहये
मेरा ज़ानो मोनस और आीनह तीरा आशना
कोहकन नक़ाश यक तमसाल शीरीं था असद
सनग से सर मर कर होवे न पीदा आशना



ज़कर इस परी वश का और फर बयां अपना
बन गया रक़ीब आख़र। था जो राज़दां अपना
मे वह कयों बहत पीते बज़ म ग़ीर में या रब
आज ही हवा मनज़ोर उन को अमतहां अपना
मन्ज़र खाक बलनदी पर और हम बन सकते
अरश से उधर होता काशके मकां अपना
दे वह जस क़द र ज़लत हम हनसी में टालीं गे
बारे आशना नकला उन का पासबां अपना
डर द दिल लखों कब तक जां उन को दखलादों
अनगलयां फ़गार अपनी ख़ामह ख़ोनचकां अपना
घसते घसते मट जाता आप ने अबस बदला
ननग सजदह से मीरे सनग आसतां अपना
ता करे न ग़माज़ी करलया है दुश्मन को
दोस्त की शकएत में हम ने हमज़बां अपना
हम कहां के दाना थे किस हनर में यकता थे
बे सबब हवा ग़ालब दुश्मन आसमां अपना



सरम मफ़त नज़र हों मरी क़ीमत यह हे
कि रहे चशम ख़रीदार पह अहसां मीरा
रख़सत नालह मझे दे कि मबादा ज़ालम
तीरे चहरे से हो ज़ाहर ग़म पनहां मीरा

।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
* नसख़ आगरह मनशी शयो नारान 1863ء मींमरी क़समत



ग़ाफ़ल बह वहम नाज़ ख़ोद आरा है वरनह यां
बे शान सबा नहीं तुरह गयाह का
बज़म क़दह से अीश तमना न रख कि रनग
सीद ज़ दाम जसतह है इस दाम गाह का
रहमत अगर क़ुबूल करे कया बाईद हे
शरमनदगी से अज़र न करना गनाह का
मक़तल को किस नशात से जा ता हो जूता मीं कि हे
पुरगल ख़याल ज़ख़म से दामन नगाह का
जां दर हवा यक नगह गरम है असद
परवानह है वकील तरे दाद ख़वाह का



जोर से बाज़ आे पर बाज़ आीं कया
कहते हैं हम तझ को मनह दखलाईं कया
रात दिन गरदश में हैं सात आसमां
हो रहे गा कुछ न कुछ घबराईं कया
लाग हो तो इस को हम समझीं लगा
जब न हो कुछ भी तो धोखा खाईं कया
हो लिये कयों नामह बर के साथ साथ
या रब अपने खत को हम पहनचाईं कया
मोज ख़ों सर से गज़र ही कयों न जाे
आसतान यार से आथ जाईं कया
उमर भर दीखा कये मरने की राह
मर गये पर दीखये दखलाईं कया
पूछते हैं वह कि ग़ालब कौन है
कोई बतला कि हम बतलाईं कया



लताफ़त बेकसाफ़त जलोह पीदा कर नहीं सकती
चमन ज़नगार है आीन बाद बहारी का
हरीफ़ जोशश दरया नहीं ख़ोददार साहल
जहां साक़ी हो तो बातल है दावी होशयारी का


अशरत क़तरह है दरया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद्द से गज़रना है दवा हो जाना
तझ से क़िस्मत में मरी सोरत क़फ़ल अबजद
था लखा बात के बनते ही जुदा हो जाना
दिल हवा कशमकश चार ज़हमत में तमाम
मट गया घसने में उस अुक़दे का वा हो जाना
अब जफ़ा से भी हैं महरोम हम अललह अललह
इस क़दर दशमन अरबाब वफ़ा हो जाना
जाफ़ से गरीह मबदल बह दम सरद हवा
बओर आया हमें पानी का हवा हो जाना
दल से मटना तरी अनगशत हनाई का ख़याल
हो गया गोशत से नाख़न का जुदा हो जाना
है मझे अबर बहारी का बरस कर खुलना
रोते रोते ग़म फ़ुरक़त में फ़ना हो जाना
गर नहीं नकहत ग़ुल को तरे कोचे की होस
कयों है गरद रह जौोलान सबा हो जाना
ताकह तझ पर खुले अाजाज़ हवा सौीक़ल
दीख बरसात में सबज़ आने का हो जाना
बख़शे है जलो गुल ज़ोक़ तमाशा ग़ालब
चशम को चाह हर रनग में वा हो जाना



शको यारां ग़बार दिल में पनहां कर दया
ग़ालब एसे गनज को अयां यही वीरानह था



फर वह सो चमन आता है खुद ख़ीर करे
रनग अड़ता है गुलसतां के हवादारों का



असद यह अजज़ व बे सामान फ़राोन तोौाम हे
जसे तो बनदगी कहता है दावी है ख़दाई का



؁ 1857ء

बस कि फ़ााल मा यरीद है आज
हर सलहशोर अनगलसतां का
घर से बाज़ार में नकलते हो
ज़हरह होता है आब अनसां का
चोक जस को कहीं वह मक़तल हे
घर बन है नमोनह ज़नदां का
शहर दहली का ज़रह ज़रह ख़ाक
तशन ख़ों है हर मसलमां का
कोई वां से न आ सके यां तक
आदमी वां न जा सके यां का
में ने माना कि मल ग फर कया
वही रोना तन व दिल व जां का
गाह जाल कर कया की शकोह
सोज़श दाग हा पनहां का
गाह रो कर कहा की बाहम
माजरा दीदह हा गरयां का
इस तरह के वसाल से या रब
कया मटे दाग दिल से हजरां का



बह रहन शरम है बा वसफ़ शोख़ी अहतमाम इस का
नगीं में जों शरार सनग ना पीदा है नाम इस का
मसी आलोद है मुहरनवाज़श नामह ज़ाहर हे
कि दाग़ आरज़ो बोसह दीता है पयाम इस का
बामीद नगाह खास हों महमल कश हसरत
मबादा हो अनां गीर तग़ाफ़ल लतफ़ आम इस का



अीब का दरयाफ़त करना है हनरमनदी असद
नक़स पर अपने हवा जो मतला कामल हवा



शब कि ज़ोक़ गफ़तगो से तीरे दिल बे ताब था
शोख़ वहशत से अफ़सानह फ़सोन ख़वाब था
वां हजोम नग़मह हा साज़ अशरत था असद
नाख़न घाम यां सर तार नफ़स मजराब था



दोद को आज इस के मातम में सीह पोशी हवी
वह दल सोज़ां कि कुल तक शमा मातम ख़ानह था
शको यारां ग़बार दिल में पनहां कर दया
ग़ालब एसे कनज को शएां यही वीरानह था







نقش فریادی ہےکس کی شوخئ تحریر کا
کاغذی ہے پیرہن ہر پیکرِ تصویر کا
کاوکاوِ سخت جانی ہائے تنہائی نہ پوچھ
صبح کرنا شام کا، لانا ہے جوئے شیر کا
جذبۂ بے اختیارِ شوق دیکھا چاہیے
سینۂ شمشیر سے باہر ہے دم شمشیر کا
آگہی دامِ شنیدن جس قدر چاہے بچھائے
مدعا عنقا ہے اپنے عالمِ تقریر کا
بس کہ ہوں غالبؔ، اسیری میں بھی آتش زیِر پا
موئے آتش دیدہ ہے حلقہ مری زنجیر کا





جراحت تحفہ، الماس ارمغاں، داغِ جگر ہدیہ

مبارک باد اسدؔ، غمخوارِ جانِ دردمند آیا







جز قیس اور کوئی نہ آیا بروئے کار

صحرا، مگر، بہ تنگئ چشمِ حُسود تھا

آشفتگی نے نقشِ سویدا کیا درست

ظاہر ہوا کہ داغ کا سرمایہ دود تھا

تھا خواب میں خیال کو تجھ سے معاملہ

جب آنکھ کھل گئی نہ زیاں تھا نہ سود تھا

لیتا ہوں مکتبِ غمِ دل میں سبق ہنوز

ڈھانپا کفن نے داغِ عیوبِ برہنگی

میں، ورنہ ہر لباس میں ننگِ وجود تھا

تیشے بغیر مر نہ سکا کوہکن اسدؔ

سرگشتۂ خمارِ رسوم و قیود تھا





کہتے ہو نہ دیں گے ہم دل اگر پڑا پایا

دل کہاں کہ گم کیجیے؟ ہم نے مدعا پایا

عشق سے طبیعت نے زیست کا مزا پایا

درد کی دوا پائی، درد بے دوا پایا

دوست دارِ دشمن ہے! اعتمادِ دل معلوم

آہ بے اثر دیکھی، نالہ نارسا پایا

سادگی و پرکاری، بے خودی و ہشیاری

حسن کو تغافل میں جرأت آزما پایا

غنچہ پھر لگا کھلنے، آج ہم نے اپنا دل

خوں کیا ہوا دیکھا، گم کیا ہوا پایا

حال دل نہیں معلوم، لیکن اس قدر یعنی

ہم نے بار ہا ڈھونڈھا، تم نے بارہا پایا

شورِ پندِ ناصح نے زخم پر نمک چھڑکا

آپ سے کوئی پوچھے تم نے کیا مزا پایا







ہے کہاں تمنّا کا دوسرا قدم یا رب

ہم نے دشتِ امکاں کو ایک نقشِ پا پایا









دل میرا سوز ِنہاں سے بے محابا جل گیا

آتش خاموش کی مانند، گویا جل گیا

دل میں ذوقِ وصل و یادِ یار تک باقی نہیں

آگ اس گھر میں لگی ایسی کہ جو تھا جل گیا

میں عدم سے بھی پرے ہوں، ورنہ غافل! بارہا

میری آہِ آتشیں سے بالِ عنقا جل گیا

عرض کیجئے جوہرِ اندیشہ کی گرمی کہاں؟

کچھ خیال آیا تھا وحشت کا، کہ صحرا جل گیا

دل نہیں، تجھ کو دکھاتا ورنہ، داغوں کی بہار

اِس چراغاں کا کروں کیا، کارفرما جل گیا

میں ہوں اور افسردگی کی آرزو، غالبؔ! کہ دل

دیکھ کر طرزِ تپاکِ اہلِ دنیا جل گیا







شوق، ہر رنگ رقیبِ سروساماں نکلا

قیس تصویر کے پردے میں بھی عریاں نکلا

زخم نے داد نہ دی تنگئ دل کی یارب

تیر بھی سینۂ بسمل سے پَرافشاں نکلا

بوئے گل، نالۂ دل، دودِ چراغِ محفل

جو تری بزم سے نکلا، سو پریشاں نکلا

دلِ حسرت زدہ تھا مائدۂ لذتِ درد

کام یاروں کا بہ قدرٕ لب و دنداں نکلا

اے نو آموزِ فنا ہمتِ دشوار پسند!

سخت مشکل ہے کہ یہ کام بھی آساں نکلا

دل میں پھر گریے نے اک شور اٹھایا غالبؔ

آہ جو قطرہ نہ نکلا تھا سُو طوفاں نکلا

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نسخۂ حمیدیہ میں مزید شعر:

شوخئِ رنگِ حنا خونِ وفا سے کب تک

آخر اے عہد شکن! تو بھی پشیماں نکلا







دھمکی میں مر گیا، جو نہ بابِ نبرد تھا

"عشقِ نبرد پیشہ" طلبگارِ مرد تھا

تھا زندگی میں مرگ کا کھٹکا لگا ہوا

اڑنے سے پیشتر بھی، مرا رنگ زرد تھا

تالیفِ نسخہ ہائے وفا کر رہا تھا میں

مجموعۂ خیال ابھی فرد فرد تھا

دل تاجگر، کہ ساحلِ دریائے خوں ہے اب

اس رہ گزر میں جلوۂ گل، آگے گرد تھا

جاتی ہے کوئی کشمکش اندوہِ عشق کی !

دل بھی اگر گیا، تو وُہی دل کا درد تھا

احباب چارہ سازئ وحشت نہ کر سکے

زنداں میں بھی خیال، بیاباں نورد تھا

یہ لاشِ بے کفن اسدؔ خستہ جاں کی ہے

حق مغفرت کرے عجب آزاد مرد تھا







شمار سبحہ،" مرغوبِ بتِ مشکل" پسند آیا

تماشائے بہ یک کف بُردنِ صد دل، پسند آیا

بہ فیضِ بے دلی، نومیدئ جاوید آساں ہے

کشائش کو ہمارا عقدۂ مشکل پسند آیا

ہوائے سیرِگل، آئینۂ بے مہرئ قاتل

کہ اندازِ بخوں غلطیدنِ*بسمل پسند آیا



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* اصل نسخۂ نظامی میں ’غلتیدن‘ ہے جو سہوِ کتابت ہے



10۔



دہر میں نقشِ وفا وجہ ِتسلی نہ ہوا

ہے یہ وہ لفظ کہ شرمندۂ معنی نہ ہوا

سبزۂ خط سے ترا کاکلِ سرکش نہ دبا

یہ زمرد بھی حریفِ دمِ افعی نہ ہوا

میں نے چاہا تھا کہ اندوہِ وفا سے چھوٹوں

وہ ستمگر مرے مرنے پہ بھی راضی نہ ہوا

دل گزر گاہ خیالِ مے و ساغر ہی سہی

گر نفَس جادۂ سرمنزلِ تقوی نہ ہوا

ہوں ترے وعدہ نہ کرنے پر بھی راضی کہ کبھی

گوش منت کشِ گلبانگِ تسلّی نہ ہوا

کس سے محرومئ قسمت کی شکایت کیجیے

ہم نے چاہا تھا کہ مر جائیں، سو وہ بھی نہ ہوا

مر گیا صدمۂ یک جنبشِ لب سے غالبؔ

ناتوانی سے حریف دمِ عیسی نہ ہوا



نسخۂ حمیدیہ میں مزید:

وسعتِ رحمتِ حق دیکھ کہ بخشا جاۓ

مجھ سا کافرکہ جو ممنونِ معاصی نہ ہوا



11۔



ستایش گر ہے زاہد ، اس قدر جس باغِ رضواں کا

وہ اک گلدستہ ہے ہم بیخودوں کے طاقِ نسیاں کا

بیاں کیا کیجئے بیدادِکاوش ہائے مژگاں کا

کہ ہر یک قطرہء خوں دانہ ہے تسبیحِ مرجاں کا

نہ آئی سطوتِ قاتل بھی مانع ، میرے نالوں کو

لیا دانتوں میں جو تنکا ، ہوا ریشہ نَیَستاں کا

دکھاؤں گا تماشہ ، دی اگر فرصت زمانے نے

مِرا ہر داغِ دل ، اِک تخم ہے سروِ چراغاں کا

کیا آئینہ خانے کا وہ نقشہ تیرے جلوے نے

کرے جو پرتوِ خُورشید عالم شبنمستاں کا

مری تعمیر میں مُضمر ہے اک صورت خرابی کی

ہیولٰی برقِ خرمن کا ، ہے خونِ گرم دہقاں کا

اُگا ہے گھر میں ہر سُو سبزہ ، ویرانی تماشہ کر

مدار اب کھودنے پر گھاس کے ہے، میرے درباں کا

خموشی میں نہاں ، خوں گشتہ* لاکھوں آرزوئیں ہیں

چراغِ مُردہ ہوں ، میں بے زباں ، گورِ غریباں کا

ہنوز اک "پرتوِ نقشِ خیالِ یار" باقی ہے

دلِ افسردہ ، گویا، حجرہ ہے یوسف کے زنداں کا

نہیں معلوم ، کس کس کا لہو پانی ہوا ہوگا

قیامت ہے سرشک آلودہ ہونا تیری مژگاں کا

نظر میں ہے ہماری جادۂ راہِ فنا غالبؔ

کہ یہ شیرازہ ہے عالَم کے اجزائے پریشاں کا



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* نسخۂ حسرت موہانی میں ’سرگشتہ‘



12۔



نہ ہوگا "یک بیاباں ماندگی" سے ذوق کم میرا

حبابِ موجۂ رفتار ہے نقشِ قدم میرا

محبت تھی چمن سے لیکن اب یہ بے دماغی ہے

کہ موجِ بوئے گل سے ناک میں آتا ہے دم میرا



13۔



سراپا رہنِ عشق و ناگزیرِ الفتِ ہستی

عبادت برق کی کرتا ہوں اور افسوس حاصل کا

بقدرِ ظرف ہے ساقی! خمارِ تشنہ کامی بھی

جوتو دریائے مے ہے، تو میں خمیازہ ہوں ساحل کا



14۔



محرم نہیں ہے تو ہی نوا ہائے راز کا

یاں ورنہ جو حجاب ہے، پردہ ہے ساز کا

رنگِ شکستہ صبحِ بہارِ نظارہ ہے

یہ وقت ہے شگفتنِ گل ہائے ناز کا

تو اور سوئے غیر نظرہائے تیز تیز

میں اور دُکھ تری مِژہ ہائے دراز کا

صرفہ ہے ضبطِ آہ میں میرا، وگرنہ میں

طُعمہ ہوں ایک ہی نفَسِ جاں گداز کا

ہیں بسکہ جوشِ بادہ سے شیشے اچھل رہے

ہر گوشۂ بساط ہے سر شیشہ باز کا

کاوش کا دل کرے ہے تقاضا کہ ہے ہنوز

ناخن پہ قرض اس گرہِ نیم باز کا

تاراجِ کاوشِ غمِ ہجراں ہوا، اسدؔ!

سینہ، کہ تھا دفینہ گہر ہائے راز کا





15۔



بزمِ شاہنشاہ میں اشعار کا دفتر کھلا

رکھیو یارب یہ درِ گنجینۂ گوہر کھلا

شب ہوئی، پھر انجمِ رخشندہ کا منظر کھلا

اِس تکلّف سے کہ گویا بتکدے کا در کھلا

گرچہ ہوں دیوانہ، پر کیوں دوست کا کھاؤں فریب

آستیں میں دشنہ پنہاں، ہاتھ میں نشتر کھلا

گو نہ سمجھوں اس کی باتیں، گونہ پاؤں اس کا بھید

پر یہ کیا کم ہے؟ کہ مجھ سے وہ پری پیکر کھلا

ہے خیالِ حُسن میں حُسنِ عمل کا سا خیال

خلد کا اک در ہے میری گور کے اندر کھلا

منہ نہ کھلنے پرہے وہ عالم کہ دیکھا ہی نہیں

زلف سے بڑھ کر نقاب اُس شوخ کے منہ پر کھلا

در پہ رہنے کو کہا، اور کہہ کے کیسا پھر گیا

جتنے عرصے میں مِرا لپٹا ہوا بستر کھلا

کیوں اندھیری ہے شبِ غم، ہے بلاؤں کا نزول

آج اُدھر ہی کو رہے گا دیدۂ اختر کھلا

کیا رہوں غربت میں خوش، جب ہو حوادث کا یہ حال

نامہ لاتا ہے وطن سے نامہ بر اکثر کھلا

اس کی امّت میں ہوں مَیں، میرے رہیں کیوں کام بند

واسطے جس شہ کے غالبؔ! گنبدِ بے در کھلا



16۔



شب کہ برقِ سوزِ دل سے زہرۂ ابر آب تھا

شعلۂ جوّالہ ہر اک حلقۂ گرداب تھا

واں کرم کو عذرِ بارش تھا عناں گیرِ خرام

گریے سے یاں پنبۂ بالش کفِ سیلاب تھا

واں خود آرائی کو تھا موتی پرونے کا خیال

یاں ہجومِ اشک میں تارِ نگہ نایاب تھا

جلوۂ گل نے کیا تھا واں چراغاں آب جو

یاں رواں مژگانِ چشمِ تر سے خونِ ناب تھا

یاں سرِ پرشور بے خوابی سے تھا دیوار جو

واں وہ فرقِ ناز محوِ بالشِ کمخواب تھا

یاں نفَس کرتا تھا روشن، شمعِ بزمِ بےخودی

جلوۂ گل واں بساطِ صحبتِ احباب تھا

فرش سے تا عرش واں طوفاں تھا موجِ رنگ کا

یاں زمیں سے آسماں تک سوختن کا باب تھا

ناگہاں اس رنگ سے خوں نابہ ٹپکانے لگا

دل کہ ذوقِ کاوشِ ناخن سے لذت یاب تھا



17۔



نالۂ دل میں شب اندازِ اثر نایاب تھا

تھا سپندِبزمِ وصلِ غیر ، گو بیتاب تھا

مَقدمِ سیلاب سے دل کیا نشاط آہنگ ہے !

خانۂ عاشق مگر سازِ صدائے آب تھا

نازشِ ایّامِ خاکستر نشینی ، کیا کہوں

پہلوئے اندیشہ ، وقفِ بسترِ سنجاب تھا

کچھ نہ کی اپنے جُنونِ نارسا نے ، ورنہ یاں

ذرّہ ذرّہ روکشِ خُرشیدِ عالم تاب تھا



ق



آج کیوں پروا نہیں اپنے اسیروں کی تجھے ؟

کل تلک تیرا بھی دل مہرووفا کا باب تھا

یاد کر وہ دن کہ ہر یک حلقہ تیرے دام کا

انتظارِ صید میں اِک دیدۂ بیخواب تھا

میں نے روکا رات غالبؔ کو ، وگرنہ دیکھتے

اُس کے سیلِ گریہ میں ، گردُوں کفِ سیلاب تھا



18۔



ایک ایک قطرے کا مجھے دینا پڑا حساب

خونِ جگر ودیعتِ مژگانِ یار تھا

اب میں ہوں اور ماتمِ یک شہرِ آرزو

توڑا جو تو نے آئینہ، تمثال دار تھا

گلیوں میں میری نعش کو کھینچے پھرو، کہ میں

جاں دادۂ ہوائے سرِ رہگزار تھا

موجِ سرابِ دشتِ وفا کا نہ پوچھ حال

ہر ذرہ، مثلِ جوہرِ تیغ، آب دار تھا

کم جانتے تھے ہم بھی غمِ عشق کو، پر اب

دیکھا تو کم ہوئے پہ غمِ روزگار تھا



19۔



بسکہ دشوار ہے ہر کام کا آساں ہونا

آدمی کو بھی میسر نہیں انساں ہونا

گریہ چاہے ہے خرابی مرے کاشانے کی

در و دیوار سے ٹپکے ہے بیاباں ہونا

واۓ دیوانگئ شوق کہ ہر دم مجھ کو

آپ جانا اُدھر اور آپ ہی حیراں* ہونا

جلوہ از بسکہ تقاضائے نگہ کرتا ہے

جوہرِ آئینہ بھی چاہے ہے مژگاں ہونا

عشرتِ قتل گہِ اہل تمنا، مت پوچھ

عیدِ نظّارہ ہے شمشیر کا عریاں ہونا

لے گئے خاک میں ہم داغِ تمنائے نشاط

تو ہو اور آپ بہ صد رنگِ گلستاں ہونا

عشرتِ پارۂ دل، زخمِ تمنا کھانا

لذت ریشِ جگر، غرقِ نمکداں ہونا

کی مرے قتل کے بعد اس نے جفا سے توبہ

ہائے اس زود پشیماں کا پشیماں ہونا

حیف اُس چار گرہ کپڑے کی قسمت غالبؔ!

جس کی قسمت میں ہو عاشق کا گریباں ہونا



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* نسخۂ طاہر میں " پریشاں"



20۔



شب خمارِ شوقِ ساقی رستخیز اندازہ تھا

تا محیطِ بادہ صورت خانۂ خمیازہ تھا

یک قدم وحشت سے درسِ دفتر امکاں کھلا

جادہ، اجزائے دو عالم دشت کا شیرازہ تھا

مانعِ وحشت خرامی ہائے لیلےٰ کون ہے؟

خانۂ مجنونِ صحرا گرد بے دروازہ تھا

پوچھ مت رسوائیِ اندازِ استغنائے حسن

دست مرہونِ حنا، رخسار رہنِ غازہ تھا

نالۂ دل نے دیئے اوراقِ لختِ دل بہ باد

یادگارِ نالہ اک دیوانِ بے شیرازہ تھا



21۔



دوست غمخواری میں میری سعی فرمائیں گے کیا

زخم کے بھرنے تلک ناخن نہ بڑھ جائیں گے کیا

بے نیازی حد سے گزری بندہ پرور، کب تلک

ہم کہیں گے حالِ دل، اور آپ فرمائیں گے 'کیا'؟

حضرتِ ناصح گر آئیں، دیدہ و دل فرشِ راہ

کوئی مجھ کو یہ تو سمجھا دو کہ سمجھائیں گے کیا؟

آج واں تیغ و کفن باندھے ہوئے جاتا ہوں میں

عذر میرے قتل کرنے میں وہ اب لائیں گے کیا

گر کیا ناصح نے ہم کو قید، اچھا یوں سہی

یہ جنونِ عشق کے انداز چھٹ جائیں گے کیا

خانہ زادِ زلف ہیں، زنجیر سے بھاگیں گے کیوں

ہیں گرفتارِ وفا، زنداں سے گھبرائیں گے کیا

ہے اب اس معمورے میں قحطِ غمِ الفت اسدؔ

ہم نے یہ مانا کہ دلّی میں رہیں، کھائیں گے کیا؟



22۔



یہ نہ تھی ہماری قسمت کہ وصالِ یار ہوتاا

اگر اور جیتے رہتے ، یہی انتظار ہوتا

ترے وعدے پر جئے ہم تو یہ جان جھوٹ جانا

کہ خوشی سے مر نہ جاتے، اگر اعتبار ہوتا

تری نازکی سے جانا کہ بندھا تھا عہد بودا

کبھی تو نہ توڑ سکتا اگر استوار ہوتا

کوئی میرے دل سے پوچھے ترے تیرِ نیم کش کو

یہ خلش کہاں سے ہوتی، جو جگر کے پار ہوتا

یہ کہاں کی دوستی ہے کہ بنے ہیں دوست نا صح

کوئی چارہ ساز ہوتا، کوئی غم گسار ہوتا

رگِ سنگ سے ٹپکتا وہ لہو کہ پھر نہ تھمتا

جسے غم سمجھ رہے ہو، یہ اگر شرار ہوتا

غم اگر چہ جاں گسل ہے پہ کہاں بچیں کہ دل ہے

غمِ عشق گر نہ ہوتا، غم روزگار ہوتا

کہوں کس سے میں کہ کیا ہے؟شب غم بری بلا ہے

مجھے کیا برا تھا مرنا، اگر ایک بار ہوتا

ہوئے مر کے ہم جو رسوا، ہوئے کیوں نہ غرق دریا؟

نہ کبھی جنازہ اٹھتا نہ کہیں مزار ہوتا

اسے کون دیکھ سکتا، کہ یگانہ ہے وہ یکتا

جو دوئی کی بو بھی ہوتی تو کہیں دو چار ہوتا

یہ مسائل تصّوف یہ ترا بیان غالبؔ

تجھے ہم ولی سمجھتے ،جو نہ بادہ خوار ہوتا



23۔



ہوس کو ہے نشاطِ کار کیا کیا

نہ ہو مرنا تو جینے کا مزا کیا

تجاہل پیشگی سے مدعا کیا

کہاں تک اے سراپا ناز کیا کیا؟

نوازش ہائے بے جا دیکھتا ہوں

شکایت ہائے رنگیں کا گلا کیا

نگاہِ بے محابا چاہتا ہوں

تغافل ہائے تمکیں آزما کیا

فروغِ شعلۂ خس یک نفَس ہے

ہوس کو پاسِ ناموسِ وفا کیا

نفس موجِ محیطِ بیخودی ہے

تغافل ہائے ساقی کا گلا کیا

دماغِ عطر پیراہن نہیں ہے

غمِ آوارگی ہائے صبا کیا

دلِ ہر قطرہ ہے سازِ ’انا البحر‘

ہم اس کے ہیں، ہمارا پوچھنا کیا

محابا کیا ہے، مَیں ضامن، اِدھر دیکھ

شہیدانِ نگہ کا خوں بہا کیا

سن اے غارت گرِ جنسِ وفا، سن

شکستِ قیمتِ دل کی صدا کیا

کیا کس نے جگرداری کا دعویٰ؟

شکیبِ خاطرِ عاشق بھلا کیا

یہ قاتل وعدۂ صبر آزما کیوں؟

یہ کافر فتنۂ طاقت ربا کیا؟

بلائے جاں ہے غالبؔ اس کی ہر بات

عبارت کیا، اشارت کیا، ادا کیا!



24۔



درخورِ قہر و غضب جب کوئی ہم سا نہ ہوا

پھر غلط کیا ہے کہ ہم سا کوئی پیدا نہ ہوا

بندگی میں بھی وہ آزادہ و خودبیں ہیں، کہ ہم

الٹے پھر آئے، درِ کعبہ اگر وا نہ ہوا

سب کو مقبول ہے دعویٰ تری یکتائی کا

روبرو کوئی بتِ آئینہ سیما نہ ہوا

کم نہیں نازشِ ہمنامئ چشمِ خوباں

تیرا بیمار، برا کیا ہے؟ گر اچھا نہ ہوا

سینے کا داغ ہے وہ نالہ کہ لب تک نہ گیا

خاک کا رزق ہے وہ قطرہ کہ دریا نہ ہوا

نام کا میرے ہے جو دکھ کہ کسی کو نہ ملا

کام میں میرے ہے جو فتنہ کہ برپا نہ ہوا*

ہر بُنِ مو سے دمِ ذکر نہ ٹپکے خونناب

حمزہ کا قِصّہ ہوا، عشق کا چرچا نہ ہوا

قطرے میں دجلہ دکھائی نہ دے اور جزو میں کُل

کھیل لڑکوں کا ہوا، دیدۂ بینا نہ ہوا

تھی خبر گرم کہ غالبؔ کے اُڑیں گے پرزے

دیکھنے ہم بھی گئے تھے، پہ تماشا نہ ہوا



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*کام کا ہے مرے وہ فتنہ کہ برپا نہ ہوا (نسخۂ حسرت، نسخۂ مہر)



25۔



اسدؔ ہم وہ جنوں جولاں گدائے بے سر و پا ہیں

کہ ہے سر پنجۂ مژگانِ آہو پشت خار اپنا



26۔



پۓ نذرِ کرم تحفہ ہے 'شرمِ نا رسائی' کا

بہ خوں غلطیدۂ صد رنگ، دعویٰ پارسائی کا

نہ ہو' حسنِ تماشا دوست' رسوا بے وفائی کا

بہ مہرِ صد نظر ثابت ہے دعویٰ پارسائی کا

زکاتِ حسن دے، اے جلوۂ بینش، کہ مہر آسا

چراغِ خانۂ درویش ہو کاسہ گدائی کا

نہ مارا جان کر بے جرم، غافل!* تیری گردن پر

رہا مانند خونِ بے گنہ حق آشنائی کا

تمنائے زباں محوِ سپاسِ بے زبانی ہے

مٹا جس سے تقاضا شکوۂ بے دست و پائی کا

وہی اک بات ہے جو یاں نفَس واں نکہتِ گل ہے

چمن کا جلوہ باعث ہے مری رنگیں نوائی کا

دہانِ ہر" بتِ پیغارہ جُو"، زنجیرِ رسوائی

عدم تک بے وفا چرچا ہے تیری بے وفائی کا

نہ دے نامے کو اتنا طول غالبؔ، مختصر لکھ دے

کہ حسرت سنج ہوں عرضِ ستم ہائے جدائی کا



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*نسخۂ حمیدیہ، نظامی، حسرت اور مہر کے نسخوں میں لفظ ’قاتل‘ ہے



27۔



گر نہ ‘اندوہِ شبِ فرقت ‘بیاں ہو جائے گا

بے تکلف، داغِ مہ مُہرِ دہاں ہوجائے گا

زہرہ گر ایسا ہی شامِ ہجر میں ہوتا ہے آب

پر توِ مہتاب سیلِ خانماں ہوجائے گا

لے تو لوں سوتے میں اس کے پاؤں کا بوسہ، مگر

ایسی باتوں سے وہ کافر بدگماں ہوجائے گا

دل کو ہم صرفِ وفا سمجھے تھے، کیا معلوم تھا

یعنی یہ پہلے ہی نذرِ امتحاں ہوجائے گا

سب کے دل میں ہے جگہ تیری، جو تو راضی ہوا

مجھ پہ گویا، اک زمانہ مہرباں ہوجائے گا

گر نگاہِ گرم فرماتی رہی تعلیمِ ضبط

شعلہ خس میں، جیسے خوں رگ میں، نہاں ہوجائے گا

باغ میں مجھ کو نہ لے جا ورنہ میرے حال پر

ہر گلِ تر ایک "چشمِ خوں فشاں" ہوجائے گا

واۓ گر میرا ترا انصاف محشر میں نہ ہو

اب تلک تو یہ توقع ہے کہ واں ہوجائے گا

فائدہ کیا؟ سوچ، آخر تو بھی دانا ہے اسدؔ

دوستی ناداں کی ہے، جی کا زیاں ہوجائے گا



28۔



درد مِنّت کشِ دوا نہ ہوا

میں نہ اچھا ہوا، برا نہ ہوا

جمع کرتے ہو کیوں رقیبوں کو

اک تماشا ہوا، گلا نہ ہوا

ہم کہاں قسمت آزمانے جائیں

تو ہی جب خنجر آزما نہ ہوا

کتنے شیریں ہیں تیرے لب ،"کہ رقیب

گالیاں کھا کے بے مزا نہ ہوا"

ہے خبر گرم ان کے آنے کی

آج ہی گھر میں بوریا نہ ہوا

کیا وہ نمرود کی خدائی تھی؟

بندگی میں مرا بھلا نہ ہوا

جان دی، دی ہوئی اسی کی تھی

حق تو یوں* ہے کہ حق ادا نہ ہوا

زخم گر دب گیا، لہو نہ تھما

کام گر رک گیا، روا نہ ہوا

رہزنی ہے کہ دل ستانی ہے؟

لے کے دل، "دلستاں" روانہ ہوا

کچھ تو پڑھئے کہ لوگ کہتے ہیں

آج غالبؔ غزل سرا نہ ہوا!



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* نسخۂ مہر، نسخۂ علامہ آسی میں 'یوں' کے بجا ئے "یہ" آیا ہے



29۔



گلہ ہے شوق کو دل میں بھی تنگئ جا کا

گہر میں محو ہوا اضطراب دریا کا

یہ جانتا ہوں کہ تو اور پاسخِ مکتوب!

مگر ستم زدہ ہوں ذوقِ خامہ فرسا کا

حنائے پائے خزاں ہے بہار اگر ہے یہی

دوامِ کلفتِ خاطر ہے عیش دنیا کا

غمِ فراق میں تکلیفِ سیرِ باغ نہ دو

مجھے دماغ نہیں خندہ* ہائے بے جا کا

ہنوز محرمئ حسن کو ترستا ہوں

کرے ہے ہر بُنِ مو کام چشمِ بینا کا

دل اس کو، پہلے ہی ناز و ادا سے، دے بیٹھے

ہمیں دماغ کہاں حسن کے تقاضا کا

نہ کہہ کہ گریہ بہ مقدارِ حسرتِ دل ہے

مری نگاہ میں ہے جمع و خرچ دریا کا

فلک کو دیکھ کے کرتا ہوں اُس کو یاد اسدؔ

جفا میں اس کی ہے انداز کارفرما کا



۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔۔

*نسخۂ نظامی کی املا ہے ’خند ہاۓ‘



30۔



قطرۂ مے بس کہ حیرت سے نفَس پرور ہوا

خطِّ جامِ مے سراسر رشتۂ گوہر ہوا

اعتبارِ عشق کی خانہ خرابی دیکھنا

غیر نے کی آہ لیکن وہ خفا مجھ پر ہوا



31۔



جب بہ تقریبِ سفر یار نے محمل باندھا

تپشِ شوق نے ہر ذرّے پہ اک دل باندھا

اہل بینش نے بہ حیرت کدۂ شوخئ ناز

جوہرِ آئینہ کو طوطئ بسمل باندھا

یاس و امید نے اک عرَبدہ میداں مانگا

عجزِ ہمت نے طِلِسمِ دلِ سائل باندھا

نہ بندھے تِشنگئ ذوق کے مضموں، غالبؔ

گرچہ دل کھول کے دریا کو بھی ساحل باندھا



32۔



میں اور بزمِ مے سے یوں تشنہ کام آؤں

گر میں نے کی تھی توبہ، ساقی کو کیا ہوا تھا؟

ہے ایک تیر جس میں دونوں چھِدے پڑے ہیں

وہ دن گئے کہ اپنا دل سے جگر جدا تھا

درماندگی میں غالبؔ کچھ بن پڑے تو جانوں

جب رشتہ بے گرہ تھا، ناخن گرہ کشا تھا



33۔



گھر ہمارا جو نہ روتے بھی تو ویراں ہوتا

بحر گر بحر نہ ہوتا تو بیاباں ہوتا

تنگئ دل کا گلہ کیا؟ یہ وہ کافر دل ہے

کہ اگر تنگ نہ ہوتا تو پریشاں ہوتا

بعد یک عمرِ وَرع بار تو دیتا بارے

کاش رِضواں ہی درِ یار کا درباں ہوتا



34۔



نہ تھا کچھ تو خدا تھا، کچھ نہ ہوتا تو خدا ہوتا

ڈُبویا مجھ کو ہونے نے، نہ ہوتا میں تو کیا ہوتا

ہُوا جب غم سے یوں بے حِس تو غم کیا سر کے کٹنے کا

نہ ہوتا گر جدا تن سے تو زانو پر دھرا ہوتا

ہوئی مدت کہ غالبؔ مرگیا، پر یاد آتا ہے

وہ ہر اک بات پر کہنا کہ یوں ہوتا تو کیا ہوتا



35۔



یک ذرۂ زمیں نہیں بے کار باغ کا

یاں جادہ بھی فتیلہ ہے لالے کے داغ کا

بے مے کِسے ہے طاقتِ آشوبِ آگہی

کھینچا ہے عجزِ حوصلہ نے خط ایاغ کا

بُلبل کے کاروبار پہ ہیں خندہ ہائے گل

کہتے ہیں جس کو عشق خلل ہے دماغ کا

تازہ نہیں ہے نشۂ فکرِ سخن مجھے

تِریاکئِ قدیم ہوں دُودِ چراغ کا

سو بار بندِ عشق سے آزاد ہم ہوئے

پر کیا کریں کہ دل ہی عدو ہے فراغ کا

بے خونِ دل ہے چشم میں موجِ نگہ غبار

یہ مے کدہ خراب ہے مے کے سراغ کا

باغِ شگفتہ تیرا بساطِ نشاطِ دل

ابرِ بہار خمکدہ کِس کے دماغ کا!



36۔



وہ میری چینِ جبیں سے غمِ پنہاں سمجھا

رازِ مکتوب بہ بے ربطئِ عنواں سمجھا

یک الِف بیش نہیں صقیلِ آئینہ ہنوز

چاک کرتا ہوں میں جب سے کہ گریباں سمجھا

شرحِ اسبابِ گرفتارئِ خاطر مت پوچھ

اس قدر تنگ ہوا دل کہ میں زنداں سمجھا

بدگمانی نے نہ چاہا اسے سرگرمِ خرام

رخ پہ ہر قطرہ عرق دیدۂ حیراں سمجھا

عجزسے اپنے یہ جانا کہ وہ بد خو ہوگا

نبضِ خس سے تپشِ شعلۂ سوزاں سمجھا

سفرِ عشق میں کی ضعف نے راحت طلبی

ہر قدم سائے کو میں اپنے شبستان سمجھا

تھا گریزاں مژۂ یار سے دل تا دمِ مرگ

دفعِ پیکانِ قضا اِس قدر آساں سمجھا

دل دیا جان کے کیوں اس کو وفادار، اسدؔ

غلطی کی کہ جو کافر کو مسلماں سمجھا



37۔



پھر مجھے دیدۂ تر یاد آیا

دل، جگر تشنۂ فریاد آیا

دم لیا تھا نہ قیامت نے ہنوز

پھر ترا وقتِ سفر یاد آیا

سادگی ہائے تمنا، یعنی

پھر وہ نیرنگِ نظر یاد آیا

عذرِ واماندگی، اے حسرتِ دل!

نالہ کرتا تھا، جگر یاد آیا

زندگی یوں بھی گزر ہی جاتی

کیوں ترا راہ گزر یاد آیا

کیا ہی رضواں سے لڑائی ہوگی

گھر ترا خلد میں گر یاد آیا

آہ وہ جرأتِ فریاد کہاں

دل سے تنگ آکے جگر یاد آیا

پھر تیرے کوچے کو جاتا ہے خیال

دلِ گم گشتہ، مگر، یاد آیا

کوئی ویرانی سی ویرانی ہے

دشت کو دیکھ کے گھر یاد آیا

میں نے مجنوں پہ لڑکپن میں اسدؔ

سنگ اٹھایا تھا کہ سر یاد آیا



38۔



ہوئی تاخیر تو کچھ باعثِ تاخیر بھی تھا

آپ آتے تھے، مگر کوئی عناں گیر بھی تھا

تم سے بے جا ہے مجھے اپنی تباہی کا گلہ

اس میں کچھ شائبۂ خوبیِ تقدیر بھی تھا

تو مجھے بھول گیا ہو تو پتا بتلا دوں؟

کبھی فتراک میں تیرے کوئی نخچیر بھی تھا

قید میں ہے ترے وحشی کو وہی زلف کی یاد

ہاں! کچھ اک رنجِ گرانباریِ زنجیر بھی تھا

بجلی اک کوند گئی آنکھوں کے آگے تو کیا!

بات کرتے، کہ میں لب تشنۂ تقریر بھی تھا

یوسف اس کو کہوں اور کچھ نہ کہے، خیر ہوئی

گر بگڑ بیٹھے تو میں لائقِ تعزیر بھی تھا

دیکھ کر غیر کو ہو کیوں نہ کلیجا ٹھنڈا

نالہ کرتا تھا، ولے طالبِ تاثیر بھی تھا

پیشے میں عیب نہیں، رکھیے نہ فرہاد کو نام

ہم ہی آشفتہ سروں میں وہ جواں میر بھی تھا

ہم تھے مرنے کو کھڑے، پاس نہ آیا، نہ سہی

آخر اُس شوخ کے ترکش میں کوئی تیر بھی تھا

پکڑے جاتے ہیں فرشتوں کے لکھے پر ناحق

آدمی کوئی ہمارا َدمِ تحریر بھی تھا؟

ریختے کے تمہیں استاد نہیں ہو غالبؔ

کہتے ہیں اگلے زمانے میں کوئی میر بھی تھا



39۔



لب خشک در تشنگی، مردگاں کا

زیارت کدہ ہوں دل آزردگاں کا

ہمہ نا امیدی، ہمہ بد گمانی

میں دل ہوں فریبِ وفا خوردگاں کا



40۔



تو دوست کسی کا بھی، ستمگر! نہ ہوا تھا

اوروں پہ ہے وہ ظلم کہ مجھ پر نہ ہوا تھا

چھوڑا مہِ نخشب کی طرح دستِ قضا نے

خورشید ہنوز اس کے برابر نہ ہوا تھا

توفیق بہ اندازۂ ہمت ہے ازل سے

آنکھوں میں ہے وہ قطرہ کہ گوہر نہ ہوا تھا

جب تک کہ نہ دیکھا تھا قدِ یار کا عالم

میں معتقدِ فتنۂ محشر نہ ہوا تھا

میں سادہ دل، آزردگیِ یار سے خوش ہوں

یعنی سبقِ شوقِ مکرّر نہ ہوا تھا

دریائے معاصی ُتنک آبی سے ہوا خشک

میرا سرِ دامن بھی ابھی تر نہ ہوا تھا

جاری تھی اسدؔ! داغِ جگر سے مری تحصیل

آ تشکدہ جاگیرِ سَمَندر نہ ہوا تھا



41۔



شب کہ وہ مجلس فروزِ خلوتِ ناموس تھا

رشتۂٴ ہر شمع خارِ کِسوتِ فانوس تھا

مشہدِ عاشق سے کوسوں تک جو اُگتی ہے حنا

کس قدر یا رب! ہلاکِ حسرتِ پابوس تھا

حاصلِ الفت نہ دیکھا جز شکستِ آرزو

دل بہ دل پیوستہ، گویا، یک لبِ افسوس تھا

کیا کروں بیمارئِ غم کی فراغت کا بیاں

جو کہ کھایا خونِ دل، بے منتِ کیموس تھا



42۔



آئینہ دیکھ، اپنا سا منہ لے کے رہ گئے

صاحب کو دل نہ دینے پہ کتنا غرور تھا

قاصد کو اپنے ہاتھ سے گردن نہ ماریے

اس کی خطا نہیں ہے یہ میرا قصور تھا



43۔



ضعفِ جنوں کو وقتِ تپش در بھی دور تھا

اک گھر میں مختصر سا بیاباں ضرور تھا



44۔



فنا کو عشق ہے بے مقصداں حیرت پرستاراں

نہیں رفتارِ عمرِ تیز رو پابندِ مطلب ہا



45۔



عرضِ نیازِ عشق کے قابل نہیں رہا
جس دل پہ ناز تھا مجھے وہ دل نہیں رہا
جاتا ہوں داغِ حسرتِ ہستی لیے ہوئے
ہوں شمعِ کشتہ درخورِ محفل نہیں رہا
مرنے کی اے دل اور ہی تدبیر کر کہ میں
شایانِ دست و خنجرِ قاتل نہیں رہا
بر روۓ شش جہت درِ آئینہ باز ہے
یاں امتیازِ ناقص و کامل نہیں رہا
وا کر دیے ہیں شوق نے بندِ نقابِ حسن
غیر از نگاہ اب کوئی حائل نہیں رہا
گو میں رہا رہینِ ستم ہاے روزگار
لیکن ترے خیال سے غافل نہیں رہا
دل سے ہوائے کشتِ وفا مٹ گئی کہ واں
حاصل سواے حسرتِ حاصل نہیں رہا
بیدادِ عشق سے نہیں ڈرتا مگر اسدؔ
جس دل پہ ناز تھا مجھے وہ دل نہیں رہا



46۔



رشک کہتا ہے کہ اس کا غیر سے اخلاص حیف!
عقل کہتی ہے کہ وہ بے مہر کس کا آشنا
ذرّہ ذرّہ ساغرِ مے خانۂ نیرنگ ہے
گردشِ مجنوں بہ چشمک‌ہاے لیلیٰ آشنا
شوق ہے "ساماں طرازِ نازشِ اربابِ عجز"
ذرّہ صحرا دست گاہ و قطرہ دریا آشنا
میں اور ایک آفت کا ٹکڑا وہ دلِ وحشی، "کہ ہے
عافیت کا دشمن اور آوارگی کا آشنا"
شکوہ سنجِ رشکِ ہم دیگر نہ رہنا چاہیے
میرا زانو مونس اور آئینہ تیرا آشنا
کوہکن" نقّاشِ یک تمثالِ شیریں" تھا اسدؔ
سنگ سے سر مار کر ہووے نہ پیدا آشنا



47۔



ذکر اس پری وش کا، اور پھر بیاں اپنا

بن گیا رقیب آخر۔ تھا جو رازداں اپنا

مے وہ کیوں بہت پیتے بز مِ غیر میں یا رب

آج ہی ہوا منظور اُن کو امتحاں اپنا

منظر اک بلندی پر اور ہم بنا سکتے

عرش سے اُدھر ہوتا، کاشکے مکاں اپنا

دے وہ جس قد ر ذلت ہم ہنسی میں ٹالیں گے

بارے آشنا نکلا، ان کا پاسباں، اپنا

در دِ دل لکھوں کب تک، جاؤں ان کو دکھلادوں

انگلیاں فگار اپنی، خامہ خونچکاں اپنا

گھستے گھستے مٹ جاتا، آپ نے عبث بدلا

ننگِ سجدہ سے میرے، سنگِ آستاں اپنا

تا کرے نہ غمازی، کرلیا ہے دشمن کو

دوست کی شکایت میں ہم نے ہمزباں اپنا

ہم کہاں کے دانا تھے، کس ہنر میں یکتا تھے

بے سبب ہوا غالبؔ دشمن آسماں اپنا



48۔



سرمۂ مفتِ نظر ہوں مری قیمت* یہ ہے

کہ رہے چشمِ خریدار پہ احساں میرا

رخصتِ نالہ مجھے دے کہ مبادا ظالم

تیرے چہرے سے ہو ظاہر غمِ پنہاں میرا



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* نسخۂ آگرہ، منشی شیو نارائن، 1863ء میں’مری قسمت‘



49۔



غافل بہ وہمِ ناز خود آرا ہے ورنہ یاں

بے شانۂ صبا نہیں طُرّہ گیاہ کا

بزمِ قدح سے عیشِ تمنا نہ رکھ، کہ رنگ

صید ز دام جستہ ہے اس دام گاہ کا

رحمت اگر قبول کرے، کیا بعید ہے

شرمندگی سے عذر نہ کرنا گناہ کا

مقتل کو کس نشاط سے جا تا ہو ں میں، کہ ہے

پُرگل خیالِ زخم سے دامن نگاہ کا

جاں در" ہواۓ یک نگہِ گرم" ہے اسدؔ

پروانہ ہے وکیل ترے داد خواہ کا



50۔



جور سے باز آئے پر باز آئیں کیا
کہتے ہیں ہم تجھ کو منہ دکھلائیں کیا
رات دن گردش میں ہیں سات آسماں
ہو رہے گا کچھ نہ کچھ گھبرائیں کیا
لاگ ہو تو اس کو ہم سمجھیں لگاؤ
جب نہ ہو کچھ بھی تو دھوکا کھائیں کیا
ہو لیے کیوں نامہ بر کے ساتھ ساتھ
یا رب اپنے خط کو ہم پہنچائیں کیا
موجِ خوں سر سے گزر ہی کیوں نہ جائے
آستانِ یار سے اٹھ جائیں کیا
عمر بھر دیکھا کیے مرنے کی راہ
مر گیے پر دیکھیے دکھلائیں کیا
پوچھتے ہیں وہ کہ غالبؔ کون ہے
کوئی بتلاؤ کہ ہم بتلائیں کیا



51۔



لطافت بےکثافت جلوہ پیدا کر نہیں سکتی

چمن زنگار ہے آئینۂ بادِ بہاری کا

حریفِ جوششِ دریا نہیں خوددارئ ساحل

جہاں ساقی ہو تو باطل ہے دعویٰ ہوشیاری کا



52۔

عشرتِ قطرہ ہے دریا میں فنا ہو جانا

درد کا حد سے گزرنا ہے دوا ہو جانا

تجھ سے، قسمت میں مری، صورتِ قفلِ ابجد

تھا لکھا بات کے بنتے ہی جدا ہو جانا

دل ہوا کشمکشِ چارۂ زحمت میں تمام

مِٹ گیا گھِسنے میں اُس عُقدے کا وا ہو جانا

اب جفا سے بھی ہیں محروم ہم اللہ اللہ

اس قدر دشمنِ اربابِ وفا ہو جانا

ضعف سے گریہ مبدّل بہ دمِ سرد ہوا

باور آیا ہمیں پانی کا ہوا ہو جانا

دِل سے مِٹنا تری انگشتِ حنائی کا خیال

ہو گیا گوشت سے ناخن کا جُدا ہو جانا

ہے مجھے ابرِ بہاری کا برس کر کھُلنا

روتے روتے غمِ فُرقت میں فنا ہو جانا

گر نہیں نکہتِ گل کو ترے کوچے کی ہوس

کیوں ہے گردِ رہِ جَولانِ صبا ہو جانا

تاکہ تجھ پر کھُلے اعجازِ ہواۓ صَیقل

دیکھ برسات میں سبز آئنے کا ہو جانا

بخشے ہے جلوۂ گُل، ذوقِ تماشا غالبؔ

چشم کو چاہۓ ہر رنگ میں وا ہو جانا



53۔



شکوۂ یاراں غبارِ دل میں پنہاں کر دیا

غالبؔ ایسے گنج کو عیاں یہی ویرانہ تھا



54۔



پھر وہ سوۓ چمن آتا ہے خدا خیر کرے

رنگ اڑتا ہے گُلِستاں کے ہواداروں کا



55۔



اسدؔ! یہ عجز و بے سامانئِ فرعون توَام ہے

جسے تو بندگی کہتا ہے دعویٰ ہے خدائی کا



56۔



؁ 1857ء



بس کہ فعّالِ ما یرید ہے آج

ہر سلحشور انگلستاں کا

گھر سے بازار میں نکلتے ہوۓ

زہرہ ہوتا ہے آب انساں کا

چوک جس کو کہیں وہ مقتل ہے

گھر بنا ہے نمونہ زنداں کا

شہرِ دہلی کا ذرّہ ذرّہ خاک

تشنۂ خوں ہے ہر مسلماں کا

کوئی واں سے نہ آ سکے یاں تک

آدمی واں نہ جا سکے یاں کا

میں نے مانا کہ مل گۓ پھر کیا

وہی رونا تن و دل و جاں کا

گاہ جل کر کیا کیۓ شکوہ

سوزشِ داغ ہاۓ پنہاں کا

گاہ رو کر کہا کیۓ باہم

ماجرا دیدہ ہاۓ گریاں کا

اس طرح کے وصال سے یا رب

کیا مٹے داغ دل سے ہجراں کا



57۔



بہ رہنِ شرم ہے با وصفِ شوخی اہتمام اس کا

نگیں میں جوں شرارِ سنگ نا پیدا ہے نام اس کا

مِسی آلود ہے مُہرنوازش نامہ ظاہر ہے

کہ داغِ آرزوۓ بوسہ دیتا ہے پیام اس کا

بامیّدِ نگاہِ خاص ہوں محمل کشِ حسرت

مبادا ہو عناں گیرِ تغافل لطفِ عام اس کا



58۔



عیب کا دریافت کرنا، ہے ہنرمندی اسدؔ

نقص پر اپنے ہوا جو مطلعِ، کامل ہوا



59۔



شب کہ ذوقِ گفتگو سے تیرے، دل بے تاب تھا

شوخئِ وحشت سے افسانہ فسونِ خواب تھا

واں ہجومِ نغمہ ہاۓ سازِ عشرت تھا اسدؔ

ناخنِ غم یاں سرِ تارِ نفس مضراب تھا



60۔



دود کو آج اس کے ماتم میں سیہ پوشی ہوئی

وہ دلِ سوزاں کہ کل تک شمع، ماتم خانہ تھا

شکوۂ یاراں غبارِ دل میں پنہاں کر دیا

غالبؔ ایسے کنج کو شایاں یہی ویرانہ تھا








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